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बाढ़ और अतिवृष्टि से जूझते भारत के लोग

शिवप्रसाद जोशी
१४ अगस्त २०१८

भारत के सात राज्यों में बाढ़, अतिवृष्टि और भूस्खलन से अब तक 774 लोगों की मौत हो गई है. दशकों से भारत बाढ़ की समस्या से जूझ रहा है लेकिन आपदा नियंत्रण और प्रभावित लोगों के लिए राहत का कोई मजबूत तंत्र नहीं बना पाया है.

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Indien Assam - Hochwasser
तस्वीर: DW/P. M. Tewari

इस साल मॉनसून में सबसे ज्यादा मौतें केरल, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में हुई हैं. करीब 250 लोग इन विभिन्न आपदाओं में घायल भी हुए हैं. पूर्वोत्तर राज्य असम में भी 11 लाख लोग प्रभावित हुए हैं और साढ़े 27 हजार हेक्टेयर जमीन को नुकसान हुआ है. केदारनाथ की 2013 की आपदा केरल में 2018 में खुद को दुहराती नजर आती है. राज्य के इडुकी, वायनाड, कन्नूर, एर्नाकुलम, पलक्कड और मलाप्पुरम जैसे जिले बाढ़ की चपेट में हैं. और जाते हुए मॉनसून के अगले कुछ रोज के लिए भारतीय मौसम विभाग ने रेड अलर्ट जारी किया है. लाखों लोग विस्थापित हो चुके हैं जिनके लिए हजार से ज्यादा राहत शिविर लगाए गए हैं. डेढ़ हजार से ज्यादा हेक्टेयर जमीन पर लगी फसल बरबाद हो गई है. चाय, कॉफी, इलायची और रबड़ के उत्पादों को भी बहुत भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है. राज्य के 22 प्रमुख जलाशयों के गेट भारी बारिश के चलते खोलने पड़े हैं. इनमें इडुकी का विशालकाय जलाशय भी है जिसकी जल-संग्रहण क्षमता 2403 फीट की है.

बड़े पैमाने पर राहत और बचाव का काम प्रभावित इलाकों में जारी है. पुलिस, सेना, वायुसेना और नौसेना और राष्ट्रीय आपदा मोचन बल, एनडीआरएफ के जवान, राहत अभियान में जुटे हैं. मौसम विभाग के मुताबिक इस बार सामान्य से 15 फीसदी अधिक बारिश हुई. भूस्खलन से सबसे ज्यादा मौतें हुई हैं. पहाड़ियों से बड़े पत्थर दरककर लोगों के घरों पर गिरे हैं, बड़े पैमाने पर मलबा गिरा है. प्रभावित इलाकों में बेढंगे भूमि सुधार, समुद्र किनारे निर्माण, इमारतों और सड़कों का अनियोजित निर्माण, पत्थरों की खुदाई, चट्टान तोड़ने को विस्फोटकों का इस्तेमाल, केरल जैसे खूबसूरत और मानव संसाधन में संपन्न राज्य में बर्बादी पर आमादा कार्रवाइयां हैं. केरल का कुटुनाड गलत नीतियों, सुस्त कार्यान्वयन और लचर आपदा प्रबंधन का शिकार बना एक दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण भी है. बाढ़ उस इलाके की पर्यावरणीय समृद्धि के लिए वरदान थी लेकिन वही अभिशाप बन गई. दूसरी ओर उत्तराखंड जैसे मध्य हिमालयी नाजुक पट्टी के राज्य भी अपनी पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय बदहाली के प्रति उदासीन और संवेदनहीन बने हुए हैं. लगातार निर्माण कार्यों से उत्तराखंड के पहाड़ इतने क्षीण हो रहे हैं कि एक तेज बारिश उन्हें फाड़ देती है. राष्ट्रीय हरित पंचाट कई राज्यों और संस्थाओं और व्यक्तियों को फटकार लगाता और पेनल्टी की सजा सुनाता ही रहता है लेकिन किसी के कान में जूं नहीं रेंगती.

Indien Uttarakhand Naturkatastrophen
उत्तराखंड में कुछ साल पहले बर्बादी के निशानतस्वीर: picture-alliance/dpa/EPA/Indo Tibetan Border Police Force

भारत सरकार के आंकड़ों पर आधारित विश्व बैंक के एक अध्ययन में अंदेशा जताया गया है कि 2040 तक देश के ढाई करोड़ लोग भीषण बाढ़ की चपेट में होंगे. बाढ़ प्रभावित आबादी में ये छह गुना उछाल होगा. केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक 1953 से 2017 की 64 साल की अवधि में अतिवृष्टि और बाढ़ से देश में कुल 107,487 मौतें हुई हैं. फसल, मकान और सार्वजनिक सेवाओं को 3,65,860 करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ है. छोटी अवधि में हाई इंटेसिटी बारिश, जलनिकास की जर्जर क्षमता, जलाशयों के रखरखाव में कमी और जल संग्रहण की लचर स्थिति और बाढ़ नियंत्रण उपायों की नाकामी को भारी बाढ़ और उससे होने वाले व्यापक नुकसान के कारणों में बताया गया है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुताबिक देश के कुल करीब 32.9 करोड़ हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र में से 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र, बाढ़ और जल प्लावन की जद में रहता है. देश में इस समय कुल 226 बाढ़ निगरानी केंद्र हैं जिन्हें 2020 तक 325 किए जाने की योजना है. लेकिन बाढ़ नियंत्रण और निगरानी के समूचे सिस्टम में नये हालात और पुराने रिकॉर्डो को देखते हुए आमूलचूल बदलाव की जरूरत है. प्रौद्योगिकीय क्षमताओं के विकास के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर की विशेषज्ञता भी हासिल करनी होगी. लेकिन इन सबसे पहले, प्रोएक्टिव, चौकस और सचेत और कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारियों-अधिकारियों वाली सरकारी मशीनरी की जरूरत है.

प्राकृतिक विपदाओं पर तेज प्रतिक्रिया के लिए सम्यक योजना और उसे लागू करने वाला ढांचा जरूरी है. त्वरित राहत के अतिरिक्त पुनर्वास का काम सुदृढ़ और पारदर्शी होना चाहिए और नुकसान को कम से कम करने की सूक्ष्म कार्ययोजना तैयार रहनी चाहिए. दीर्घ अवधि के उपाय भी महत्वपूर्ण हैं. जंगल न काटे जाएं, सड़क निर्माण में प्राकृतिक संतुलन का ख्याल रखा जाए, शहरीकरण को पर्यावरणीय संतुलन के साथ चलाया जाए, कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए उद्योगों, बिजली संयत्रों, रिफाइनरियों, और कार्बन उत्सर्जित करने वाले अन्य उपक्रमों, उद्यमों को लेकर एक नीति बने. नागरिक भागीदारी बढ़ाई जाए. वृक्षारोपण को एक दिन का नारा बनाने के बजाय एक ठोस लक्ष्य बनाया जाए. कानून कड़े और सजाओं का प्रावधान हो. भूजल संग्रहण के साथ साथ पानी की बर्बादी रोकने के उपाय भी किए जाने चाहिए. वाहनों की आमद और प्रदूषण के लिए बाध्यकारी उपाय चाहिए. पब्लिक ट्रांसपोर्ट की दशा सुधारनी होगी. सार्वजनिक सेवाओं का इतना निजीकरण एक बेकाबू फिसलन है. जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के रूप में, प्रकृति अपनी अतिशयता और कोप दिखा रही है.