1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

बात रिवायत की नहीं वर्चस्व की है

१७ दिसम्बर २०१५

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के मंदिरों में शास्त्रसम्मत और उत्तराधिकार की परंपरा के आधार पर ही पुजारियों की नियुक्ति को सही करार दिया है. यानी ब्राह्मण जाति के पुरुष ही मंदिर में पुजारी की जिम्मेदारी संभालते रहेंगे.

https://p.dw.com/p/1HP2x
Bildergalerie Gold in Indien Padmanabhaswamy Tempel
तस्वीर: STRDEL/AFP/Getty Images

समाज में बराबरी की लड़ाई लड़ने वाली बिरादरी इस आदेश से भौंचक्की रह गई है. उधर हिंदू मतावलम्बियों के एक हिस्से और तमिल ब्राह्मण समुदाय में खुशी और राहत है. 1971 में ये मामला सबसे पहले उठा था जब तत्कालीन डीएमके सरकार ने राज्य के एक कानून में संशोधन कर उत्तराधिकार के आधार पर नियुक्तियों को खत्म कर दिया. 2006 में फिर डीएमके सरकार ने इस बारे में आदेश दिए थे जिसे कोर्ट में चुनौती दी गई थी.

कोर्ट का कहना है कि जिन मंदिरों में अपने शास्त्र के आधार पर ही अर्चक यानी पुजारी की नियुक्ति करने का प्रावधान है वे ऐसा करते रहेंगे क्योंकि ये स्वतंत्रता के अधिकार का मामला है जिसके दायरे में धार्मिक स्वतंत्रता भी आती है. लेकिन क्या ये समानता के अधिकार का हनन नहीं है, तो कोर्ट की निगाह में ऐसा नहीं है. उसने भले ही उत्तराधिकार के आधार पर नियुक्ति की प्रक्रिया को नहीं माना लेकिन इस बात की इजाजत दे दी कि चयन निर्धारित व्यवस्था, सेक्ट या समूह से ही हों. इस तरह मंदिरों में नियुक्ति के निर्धारण में परपंरा और रिवायत को तवज्जो दी गई है और ये परंपरा कहती है कि पुजारी ब्राह्मण समुदाय से ही होगा.

इस फैसले पर आलोचकों का कहना है कि उसके पास सदियों से चली आ रही ब्राह्मणवादी वर्चस्व की प्रथा को खत्म करने का एक सही अवसर था लेकिन इसके बजाय कोर्ट ने मंदिर प्रतिष्ठानों की मान्यताओं और रिवायतों को ही सर्वोपरि माना. सही है कि उत्तराधिकार की परंपरा पर उसने सवालिया निशान लगाए लेकिन जिस तरह का ये आदेश है उसमें पादरी के पद पर किसी “उपयुक्त” या “योग्य” उम्मीदवार की तलाश साफ है कि कहां जाकर पूरी होगी. मंदिरों की शक्ति और प्रबंधन की जो अपनी संरचना है उसमें आखिरकार सुई तो उत्तराधिकार के परम्परागत अधिकार पर ही जाकर टिकेगी. कोर्ट ने ये भी जरूर कहा है कि अगर नियुक्ति में संवैधानिक सिद्धांतों की अनदेखी होती है और कोई उसे चुनौती देता है तो वो ऐसे प्रत्येक मामले की जांच करेगा.

जून 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में पंढरपुर के विठोबा मंदिर में ब्राह्मण पुजारियों के एकाधिकार को खत्म किया था. उसके बाद वहां पर गैर ब्राह्मण पुजारी रखे गए थे. महिलाएं भी थीं. ताजा फैसले में सबसे बड़ा अंतर्विरोध और शायद कोर्ट के सामने सबसे बड़ी उलझन समानता के अधिकार बनाम धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को लेकर रही होगी. हो सकता है कोर्ट धार्मिक संस्थानों में भी समानता के अधिकार के सवाल को सर्वोपरि रखकर, समाज में एक नई कहानी लिख सकता था लेकिन उसे लगा होगा कि धार्मिक आजादी का प्रश्न भी उतना ही गहरा है. अपने फैसले में इसी आजादी को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने हिंदू धर्म के व्यापक और विविध रीति रिवाजों, मान्यताओं, शाखाओं और प्रशाखाओं में व्याप्त मान्यताओं का संज्ञान लिया होगा. इन सबके बावजूद ये तो समझ में आता है कि कोई ईसाई, मुस्लिम या हिंदू ही क्रमशः पादरी, मौलवी या पुजारी बन सकता है लेकिन वो किसी एक खास जाति या समूह या लिंग का होगा, ये बात थोड़ी अजीब लगती है. अपने सारे तर्को और तमाम संवैधानिक बिंदुओं को परखकर और तमाम अधिकारों के सवालों पर गौर करते हुए कोर्ट ने फैसला दिया है लेकिन क्या इससे एक बार फिर उन्हीं रूढ़ियों, मान्यताओं और सिलसिलों को बल नहीं मिलेगा जो किसी न किसी रूप में ब्राह्मणवादी वर्चस्व को प्रोत्साहित करती हैं या उन्हें स्वीकार करती है?

इस सवाल का जवाब जरूरी है. क्योंकि यही पेचीदगियां आधुनिक भारत के सच्चे विकास में बाधाएं खड़ी करती रही हैं. इन्हीं पेचीदगियों और विमर्शों का लाभ वे शक्तियां उठाती रही हैं जो अपनी प्रभुता से नीचे उतरने से इंकार करती हैं और समाज के कमजोरों, वंचितों और उत्पीड़ितों पर दमन करती हैं. अंग्रेजों ने जब सती प्रथा को बंद किया तो इसका कई हल्कों में विरोध किया गया था. बताया जाता है कि तत्कालीन शासन ने ये कहकर इस विरोध का जवाब दिया था कि अगर सती प्रथा इस समाज के लिए एक रिवायत है तो किसी महिला को जलती चिता के हवाले करने वाले भी गुनहगार और फांसी के हकदार हैं क्योंकि ब्रिटिश समाज की यही रिवायत है. यहां आशय तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत की प्रशंसा करने या उसे सही ठहराने का कतई नहीं है लेकिन अगर उस दौर के कई कड़े और भयावह कानून आजाद भारत में जारी रह सकते हैं तो उस दौर में जागरूकता की कुछ मिसालों से सबक लेने में क्या हर्ज.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

क्या आप अपनी राय देना चाहते हैं? कृपया नीचे के खाने में अपनी टिप्पणी लिखें.