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बिजली के लिए अहम है कोयला

प्रभाकर२६ मार्च २०१५

हर मोर्चे पर चौतरफा विकास और कोयले का तीसरा बड़ा उत्पादक देश होने के बावजूद भारत को अपनी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने में अक्षम है. देश में सवा सौ करोड़ की आबादी में से लगभग 31 करोड़ को अब तक बिजली नहीं मिलती.

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तस्वीर: Reuters

इस हालत तब है जबकि आजादी के बाद भारत में बिजली का उत्पादन काफी बढ़ा है. देश के कई इलाकों में जापान समेत दूसरे देशों की सहायता से लगने वाले बिजली उत्पादन संयंत्रों को आम लोगों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन भारत की मजबूरी यह है कि उसके समक्ष अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कोयला-आधारित संयंत्रों के अलावा दूसरे विकल्प सीमित हैं. वर्ष 2013 में देश के कुल बिजली उत्पादन में कोयले की सहायता से बनने वाली बिजली का हिस्सा 71 फीसदी था. इससे ऊर्जा के क्षेत्र में बढ़ती मांग को पूरा करने में कोयले की अहमियत समझी जा सकती है. भारत जैसे विकासशील देश में ऊर्जा अर्थव्यवस्था के विकास की प्रमुख उत्प्रेरक है. कोयले का तीसरा सबसे बड़ा देश होने की वजह से यहां बिजली उत्पादन में कोयला उर्जा का एक अहम स्रोत है.

कोयले पर आधारित संयंत्रों से कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन होता है. जलवायु परिवर्तन के सवाल पर इस कार्बन उत्सर्जन को लेकर दुनिया के कई देशों में गंभीर विमर्श चल रहा है. लेकिन भारत के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पिछले साल जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में कहा कि देश में कार्बन का उत्सर्जन अभी अगले तीस वर्षों तक बढ़ता रहेगा. मंत्री के इस बयान से साफ है कि अगले तीन दशकों के दौरान देश में बिजली के उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता और बढ़ेगी. कोयले का अकूत भंडार होने के बावजूद इसकी क्वालिटी ठीक नहीं होने की वजह से भारत को अपने बिजली संयंत्रों के लिए खासकर इंडोनेशिया और दक्षिण अप्रीका से कोयले का आयात करना पड़ता है. इसके अलावा उसे खाने पकाने वाले यानी कुकिंग कोल का आस्ट्रेलिया से आयात करना पड़ता है. वर्ष 2012 तक के आंकड़ों के मुताबिक, आयात पर देश की निर्भरता बढ़ कर 23 फीसदी तक पहुंच गई है. बिजली की मांग और उत्पादन में बढ़ते अंतर को पाटने के लिए भारत को हर साल कोयले का आयात बढ़ाना पड़ रहा है.

बिजली की खपत के मामले में भारत दुनिया के कई देशों के मुकाबले काफी पिछड़ा है. मिसाल के तौर पर देश में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 917 किलोवाट घंटे है, जबकि चीन, जर्मनी और अमेरिका में यह दर क्रमश: 3,298, 7081 और 13,246 किलोवाट घंटे है. इस मामले में वैश्विक औसत 2600 किलोवाट घंटे है. यानी यहां यह खपत वैश्विक औसत की एक-तिहाई है. इससे देश में बिजली की मांग और उत्पादन के बीच का अंतर समझ में आता है.

केंद्र सरकार के मोटे अनुमान के मुताबिक, भारत की ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए अगले पांच वर्षों में 250 अरब अमेरिकी डालर के निवेश की जरूरत होगी. इस साल फरवरी तक देश की स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता 261.006 गीगावाट थी. इसे तेजी से बढ़ाना जरूरी है. आजादी के बाद के छह दशकों में देश में कोयले पर आधारित बिजली का उत्पादन तेजी से बढ़ा है और 1947 के 756 मेगावाट के मुकाबले पिछले साल तक यह बढ़ कर 1 लाख 53 हजार 571 मेगावाट तक पहुंच चुका था. लेकिन देश की तेजी से बढ़ती आबादी के लिहाज से यह भी नाकाफी है. देश में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का विरोध किसी से छिपा नहीं है. वैकल्पिक स्रोतों के अभाव में देश में अगले दो-तीन दशकों के दौरान कोयले पर आधारित बिजली का उत्पादन बढ़ना तय है. तभी घर-घर में बिजली पहुंचाने का सपना साकार होगा.