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क्यों फ्लॉप शो साबित हुआ सपा-बसपा गठबंधन?

समीरात्मज मिश्र
२५ मई २०१९

कयास लगाए जा रहे थे कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है. लेकिन नतीजों को देखकर तो ऐसा लगता है कि नुकसान तो दूर गठबंधन बीजेपी को चुनावी मुकाबले में कड़ी टक्कर भी नहीं दे सका.

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Indien BSP Politikerin Mayawati
तस्वीर: Ians

लोकसभा चुनाव में ये माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) का गठबंधन भारतीय जनता पार्टी को कड़ी टक्कर देगा. साथ ही ये गठबंधन शायद बीजेपी को काफी नुकसान भी पहुंचा दे. लेकिन टक्कर देना तो दूर कई जगह तो ये गठबंधन ठीक से मुकाबले में भी नहीं दिखा. ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ और इन पार्टियों की सोशल इंजीनियरिंग इन चुनावों में क्यों काम नहीं कर सकी.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की पहचान मुख्य रूप से पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी के रूप में होती है. वहीं बहुजन समाज पार्टी दलितों की पार्टी के रूप में जानी जाती है. ऐसा भी नहीं है कि इन दलों में दूसरे समुदाय के लोग नहीं हैं या फिर अन्य समुदाय के वोट इन्हें नहीं मिलते हैं लेकिन सालों से इनका पारंपरिक वोट बैंक यही समुदाय रहे हैं. बाकी समुदायों का प्रतिनिधित्व और निष्ठा देश, काल और परिस्थिति पर ही निर्भर होती है.

जहां तक गठबंधन का सवाल है तो सपा और बसपा इस उम्मीद में साथ आई थीं कि उन्हें पिछड़ी और दलित जातियों के वोट के साथ यदि अल्पसंख्यकों यानी मुस्लिमों का एकतरफा वोट मिल गया तो पूरे राज्य में राजनीतिक समीकरण इस तरह के हो जाएंगे कि बीजेपी समेत कोई और पार्टी कहीं मुकाबले में ही नहीं दिखेगी. साल 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधान सभा चुनाव में ये आंकड़े भी कुछ ऐसा ही कह रहे थे और इन पर मुहर लगा दी पिछले साल हुए फूलपुर, गोरखपुर और कैराना लोकसभा के उपचुनावों ने. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में जातियों का यह समीकरण सीटों में तब्दील नहीं हो सका.

उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी करीब 60 फीसदी है. वहीं ऐसा भी नहीं माना जा सकता कि सभी दलित और सभी पिछड़ी जातियां इन्हीं पार्टियों के प्रति निष्ठा रखती हों. बावजूद इसके यादव समुदाय समाजवादी पार्टी का कोर वोटर समझा जाता है और दलितों में जाटव समुदाय बहुजन समाज पार्टी का कोर वोटर माना जाता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सीमित जाट समुदाय का प्रतिनिधत्व करने वाली राष्ट्रीय लोकदल भी इस गठबंधन में शामिल थी. इनके साथ यदि मुस्लिमों की आबादी के प्रतिशत को भी जोड़ दिया जाए तो ये करीब पचास प्रतिशत बैठता है.

इसी आंकड़े के साथ गठबंधन के नेता राज्य में लोकसभा की 80 में से कम से कम 60 सीटें जीतने का अनुमान लगाए बैठे थे लेकिन जब परिणाम आए तो गठबंधन को महज 15 सीटों पर संतोष करना पड़ा. इनमें भी समाजवादी पार्टी तो महज पांच सीटों पर ही सिमट गई और बसपा के खाते में दस सीटें गईं. बीजेपी को 62 सीटें और उसकी सहयोगी अपना दल को दो सीटें मिलीं. रायबरेली की एकमात्र सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर सोनिया गांधी को जीत हासिल हुई.

वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं, "सपा और बसपा अपने वोट बैंक को एक-दूसरे को दिलाने में नाकाम रहीं, बसपा नेता मायावती को अब तक माना जाता था कि वो अपना वोट बैंक कहीं भी ट्रांसफर कर सकती हैं लेकिन इस बार यह भ्रम टूट गया." उन्होंने बताया कि सपा का वोट भी हर जगह बसपा को नहीं गया. जहां समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार नहीं थे, वहां यादवों ने बीजेपी को वोट दिया है. मिश्र के मुताबिक, "जाटवों ने भी हर जगह गठबंधन को वोट नहीं दिया क्योंकि यदि दिया होता तो शायद ये परिणाम ना आते क्योंकि मुस्लिमों का एकतरफा वोट गठबंधन को ही गया है.”

पिछले साल उपचुनाव में सफलता पाने के बाद सपा और बसपा एक दूसरे के काफी करीब आए और ये नजदीकी राजनीतिक गठबंधन में बदल गई. संयुक्त रैलियां की गईं और मतदाताओं को ये संदेश देने की कोशिश की गई कि 25 साल की राजनीतिक और व्यक्तिगत दुश्मनी अब खत्म हो गई है. लेकिन शायद मतदाता इस संदेश को नहीं ले सके या फिर उन्होंने इसे लेने से इनकार कर दिया.

वरिष्ठ पत्रकार अमिता वर्मा कहती हैं, "सपा और बसपा ने ऊपरी तौर पर तो गठबंधन कर लिया, नेताओं के दिल मिल गए, आपसी झगड़े भी खत्म हो गए लेकिन जमीनी कार्यकर्ता इस मिलन को पचा नहीं पाया.” वर्मा कहती हैं कि दलित समुदाय के लोगों की जमीनी स्तर पर सबसे ज्यादा अदावत यादव समुदाय के लोगों से ही होती है, बाकी कथित ऊंची जातियां भले ही ज्यादा बदनाम हों. ऐसे में यादवों और जाटवों ने कोशिश भले ही की साथ आने की लेकिन पूरी तरह से साथ आ नहीं पाए.

वहीं दूसरी ओर, बीजेपी ने गैर यादव पिछड़ों को लामबंद करने की पूरी कोशिश की तो दूसरी ओर दलितों को भी अपनी ओर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसके लिए उसने पहले तो इनके जातीय क्षत्रपों की एक फौज तैयार की, उनके महापुरुषों का महिमामंडन किया और फिर जातीय आधार पर बनीं कुछ पार्टियों के साथ तालमेल किया. इन सबके अलावा उज्ज्वला योजना, दो हजार रुपये, आवास और शौचालय जैसी योजनाओं के जरिए लोगों का दिल जीतने का प्रयास किया और सफल रहे.

यही नहीं, प्रचार-प्रसार के लिए भी बीजेपी ने जिस आक्रामक रणनीति को अपनाया, गठबंधन में वो कहीं नहीं दिख रही थी. पहले चरण के मतदान से कुछ समय पहले दोनों दलों की पहली संयुक्त रैली हुई जबकि उस वक्त तक नरेंद्र मोदी और अमित शाह यूपी में दर्जनों बैठकें कर चुके थे. बसपा नेता मायावती तो यूपी की बजाय अन्य राज्यों में चुनाव प्रचार में व्यस्त थीं और कमोवेश यही हाल समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का था.

Wahlen in Indien
तस्वीर: DW/O. Singh Janoti

इन सबके अलावा, समाजवादी पार्टी में विभाजन का खामियाजा भी न सिर्फ समाजवादी पार्टी को भुगतना पड़ा बल्कि बसपा भी उसकी भुक्तभोगी बनी. यादव लैंड के रूप में समझे जाने वाले इटावा और उसके आस-पास की तमाम सीटों पर बीजेपी की जीत हुई और इन सभी जगहों पर शिवपाल यादव की पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतारे थे. जाहिर है, इन उम्मीदवारों के सारे वोट केवल और केवल गठबंधन के थे. खुद यादव परिवार के तीन अहम सदस्य- डिंपल यादव कन्नौज से, धर्मेंद्र यादव बदायूं से, अक्षय यादव फिरोजबाद से चुनाव हार गए.

चुनाव परिणाम के बाद वोटों के जो आंकड़े आ रहे हैं उनसे साफ है कि बीजेपी को न सिर्फ उसके परंपरागत वोटरों ने वोट दिया बल्कि पिछड़ी जातियों और दलितों का भी एक बड़ा हिस्सा उसके साथ खड़ा हुआ. सुभाष मिश्र यह भी कहते हैं कि कुछ लोग तो गठबंधन की प्रतिक्रिया में बीजेपी की ओर चले गए.

इस बीच ये सवाल भी है कि अगर कांग्रेस गठबंधन में शामिल होती तो शायद नतीजे कुछ और होते?  आंकड़ों पर गौर करें तो ऐसा लगता नहीं है. सपा को 17 फीसदी, बसपा को 19 फीसदी और कांग्रेस को मिले तकरीबन सात फीसदी वोटों को यदि मिला भी दिया जाए तो ये बीजेपी को मिले करीब 49 प्रतिशत मतों से काफी कम है. हालांकि कुछ ऐसी सीटें ऐसी जरूर रहीं जहां कांग्रेस पार्टी को मिले मतों की संख्या गठबंधन के उम्मीदवारों की हार के फासले से ज्यादा रही. निश्चित ही इन जगहों पर कांग्रेस पार्टी के साथ रहने का फायदा गठबंधन को मिल सकता था लेकिन ऐसी सीटें महज आठ से दस हैं. हालांकि अमिता वर्मा कहती हैं कि इन परिणाम के आधार पर इसका आकलन नहीं होना चाहिए. उनके मुताबिक, कांग्रेस पार्टी भी यदि गठबंधन में होती तो निश्चित तौर पर गठबंधन बहुत अच्छा प्रदर्शन करता.

जहां तक गठबंधन में कांग्रेस के शामिल होने का सवाल है, तो इसकी कोशिशें शुरू से ही इसलिए हो रही थीं ताकि मुस्लिम वोटों में बँटवारे को रोका जा सके. चुनावी आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो मुस्लिम वोट कांग्रेस को शायद ही किसी सीट पर एकतरफा पड़े हों. यहां तक कि कांग्रेस को इतने वोट भी नहीं पड़े कि वो किसी तरह मुकाबले में आती या फिर गठबंधन की राह रोक देती. लेकिन कई सीटें ऐसी जरूर हैं जहां सपा और बसपा के वोट ही ट्रांसफर हुए नहीं लगते.

सुभाष मिश्र इस संदर्भ में संतकबीर नगर और भदोही सीट का उदाहरण देते हैं जहां दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण वोट मिलने के बावजूद गठबंधन उम्मीदवार की हार हो गई. मिश्र के मुताबिक, "कांग्रेस ने यादव उम्मीदवारों को टिकट दिया और यादवों का वोट गठबंधन की बजाय कांग्रेस और बीजेपी को चला गया. यादवों ने यदि वोट दिया होता तो गठबंधन उम्मीदवार के हारने की कोई वजह ही नहीं थी.”

बहरहाल, इन परिणामों से ये तो तय हो गया है कि सामाजिक समीकरणों को चाहे जितना बिठाने की कोशिश की जाए, राजनीति में ये गणित के जोड़ की तरह परिणाम नहीं दे सकते.

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