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बुंदेलखंड में जर्मन महिला का ग्राम स्वराज का नारा

७ मई २०१३

जज्बा हो तो क्या कुछ नहीं होता, जर्मनी की उलरिके राइनहार्ड सूखे और पिछड़ेपन का दंश झेल रहे बुंदेलखंड के इलाके में इस तसदीक को एक फिर सच साबित करने में जुटी हैं. बुंदेलखंड से निर्मल यादव का ब्लॉग.

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तस्वीर: DW/N. Yadav

जब सत्ता और प्रशासन सही मायने में जनता की अभिलाषाओं को पूरा करते हैं, इसी परिदृश्य को आदर्श लोकतंत्र कहते हैं. भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के कितने भी दावे क्यों न कर ले लेकिन देश इस आदर्श स्थिति से कोसों दूर होने की हकीकत से इनकार नहीं कर सकता.

बीते 65 सालों में भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में आई तमाम विसंगतियों के कारण जनमानस में फैली घोर निराशा और घुटन भरे माहौल के बीच एक छोटी सी पहल, सुखद भविष्य की उम्मीद पैदा कर सकती है. पिछले एक दशक से सूखा, भुखमरी और पलायन की मार झेलने को अभिशप्त हो चुके बुंदेलखंड की धरती में उम्मीद की ये कोपलें पौधे का रूप लेती दिख रही हैं. मुट्ठी भर लोगों के प्रयास से एक पहल को आगे बढ़ाने की सूत्रधार बनी हैं एक जर्मन महिला, जिन्होंने घोर निराशा के अंधियारे में उम्मीद का दिया रौशन किया. और अब लगता है लोगों ने भी इसे मशाल बनाने की ठान ली है.

उत्साह फूंकती उलरिके

इतना ही नहीं नकारात्मक रवैये के लिए कुख्यात हो चुके भारत के नौकरशाह भी सात समंदर पार से आई इस महिला के जज्बे को सलाम करने के लिए विवश हो गए हैं. हम बात कर रहे हैं उलरिके राइनहार्ड की, जो इन दिनों बुंदेलखंड में सूखे की सबसे ज्यादा मार झेल रहे महोबा जिले को अपनी अनूठी पहल के जरिए कर्मभूमि बना चुकी हैं. एक ऐसी पहल, जो सही मायने में लोकतंत्र को उसके करीब लाती है, वह भी हुकूमत से लेकर हाकिम तक और समृद्ध से लेकर विपन्न तक, हर चेहरे पर छाई मायूसी को खुशी में तब्दील करते हुए.

साथी हाथ बढ़ाना

उलरिके ने कृषि और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में कार्यरत कुछ लोगों को जोड़कर महोबा जिले के पाठा गांव में दो दिन की कार्यशाला आयोजित की. अपनी तरह की इस अनूठी कार्यशाला में गांव वालों को एक ऐसी माथापच्ची करने के लिए कहा गया जिसमें उन्हें अपनी समस्याओं को पहचानना था और उसका समाधान भी खुद ही सुझाना था. चार चरण वाली इस कवायद में कोई भी काम मुंह जुबानी नहीं होना था बल्कि खांटी जर्मन अंदाज में लिखत पढ़त के साथ किया गया. हिंदी से अनजान उलरिके और गांव वालों के बीच सेतु का काम किया प्रबंधन गुरु महमूद खान ने, जो खुद बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनिलीवर के तमाम बड़े प्रोजेक्टों को कई देशों में अंजाम दे चुके है और अब हरियाणा के मेवात इलाके में खेती किसानी को उन्नत बनाने की मुहिम में जुटे हैं. साथ ही उलरिके को तकनीकी मदद देने के लिए गूगल इंक की टीम भी इस भागीरथ प्रयास में खुद को शामिल करने से रोक न सकी. इतना ही नहीं घनघोर निराशा में डूबे इस इलाके में किसानों को उनकी ताकत का एहसास करा रहे बांदा के जुझारू किसान प्रेम सिंह ने गांव वालों को इस बात की कामयाबी से रूबरू करा दिया कि मौजूदा व्यवस्था को कोसने की जरुरत नहीं है बल्कि इसी व्यवस्था में हालात अपने पक्ष में किए जा सकते हैं.

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तस्वीर: DW/N. Yadav

काहिली का तमगा हासिल कर चुकी सरकार और उसके नौकरशाहों को गांव की चौपाल और किसान के दरवाजे तक बुलाने वाली इस कवायद के तहत सबसे पहले गांव वालों ने खुद को दस छोटे छोटे समूहों में बांट लिया. इसके बाद सभी समूहों ने अपने गांव की समस्याओं की सूची तैयार की. हर समूह की सूची में 15 से 20 समस्याएं सामने आयीं. इन पर विचार विमर्श और फिर मतदान के बाद हर समूह ने तीन सबसे अहम समस्याओं को चुना गया. मसलन नौजवानों के लिए बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या थी, तो बुजुर्गों के लिए सिंचाई और बच्चों के लिए कंप्यूटर शिक्षा तात्कालिक जरूरत थी.

अब इन्हें उन समस्याओं का समाधान खोजना था जिनका हल निकालने में सरकार की कोई जरुरत न हो. महमूद खान और प्रेम सिंह के सकारात्मक अंदाज में हालात से लड़ने अनुभव और उलरिके का जज्बा कुछ यूं रंग लाया कि सिंचाई के लिए चकडेम बनाने से लेकर गांव में सफाई करने और यहां तक कि बच्चों ने कंप्यूटर खरीदने तक के लिए सरकारी मदद की जरूरत से इनकार कर दिया.

मर्ज के बाद इलाज

चार बड़ी समस्याओं सिंचाई, शिक्षा, सफाई और स्वास्थ्य से जुड़े अधिकारी भी गांव वालों के इस रुख से प्रभावित होने से खुद को नहीं रोक पाए. अव्वल तो जिलाधिकारी के आदेश पर ये अधिकारी मजबूरी में सीमित संसाधनों और कायदे कानूनों का रोना रोने वाली अपनी घिसी पिटी दलीलों के साथ गांव आए थे. लेकिन यहां बदली फिजा को देख कर ये भी अपनी सोच में बदलाव कर गांव की तकदीर बदलने के सफर में हमराह बन गए.

समस्याएं पहचानने और इनका समाधान खोजने के बाद अब बारी थी एक सिटीजन चार्टर बनाने की. इसमें गांव वालों ने यह तय किया कि कौन सा काम कौन करेगा और कितने समय में पूरा कर देगा. मसलन गांव की गलियों को साफ रखने के लिए ग्राम प्रधान महेंद्र सिंह ने सात दिन के भीतर सफाईकर्मी नियुक्त करने की जिम्मेदारी ली तो बच्चों ने भी सरकारी मदद के बिना ही गांव से चंदा जमा कर अपनी प्राथमिक पाठशाला के लिए एक जुलाई से पहले कंप्यूटर खरीदने का जिम्मा ले लिया. ना नुकुर करने के आदी हो चुके सरकारी अधिकारियों के लिए गांव वालों के इस रुख ने आईना दिखाने का काम किया.

अब मुद्दा उठा पैसे का. सरकार से मदद की उम्मीद किए बिना गरीबी से हलकान गांव वाले आखिर इस जिम्मेदारी को अपने कमजोर कन्धों पर उठाएं कैसे. ऐसे में सबकी नजरें जा टिकी उलरिके पर. दुभाषिये के जरिए उलरिके ने गांव वालों को सख्त टीचर वाले अंदाज में दो टूक कह दिया कि सिटीजन चार्टर के मुताबिक ऐसे काम की शुरुआत करो जो बिना पैसे के अपने श्रम से किये जा सकते हैं. चुनौती मिलते ही पत्थर से पानी निकालने को मशहूर बुन्देली काया भी जोश से भर गई. तत्काल प्रभाव से ग्राम प्रधान की सरपरस्ती में एक कार्यदल का गठन कर दिया गया. इस दल ने स्कूल में टीचर की नियमित मौजूदगी, गांव की गलियों को दुरुस्त करवाने, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में दवाओं का नियमित वितरण और तालाब की सफाई को सुनिश्चित करने का काम शुरू करने का बिगुल फूंक दिया. कार्यशाला के आखिरी सत्र में जोश और जज्बे के इस उफान के गवाह बने जिले के उप जिलाधिकारी भी इस कवायद में खुद को शामिल करने से रोक न सके. संकेतों के जरिये बड़े सन्देश देने की इस पहल को अंजाम तक ले जाते हुए उलरिके ने इस कार्यदल के नाम दस हजार रुपये का एक फंड बनाकर कुंठाग्रस्त व्यवस्था को एक और मौन सन्देश दिया. उलरिके और उनकी पहल पर जुटे लोग, गांव वालों के दरवाजे पर दस्तक देने को मजबूर हुए नौकरशाह तथा खुद गांव वाले तीन महीने बाद एक नए माहौल में कुछ सार्थक परिणामों के साथ फिर से मिलने के वादे के साथ रुखसत हो गए.

गांव के सबसे पुराने पेड़ की छांव तले 48 घंटे चली इस कवायद से क्या खोया और क्या पाया, इसका हिसाब तो आने वाला वक्त ही लगा पाएगा लेकिन दुश्वारियों की मार झेल रहे इस छोटे से गांव से समूची व्यवस्था को सकारात्मक सोच का ऐसा करंट लगा सकता है जो कुंद हो चुके दिमागों, भ्रष्ट हो चुके हाथों और जंग खा चुकी कुदाल, खुरपी और फावड़े की धार को फिर तेज कर दे. शायद पेड़ का जर्जर हो चुका चबूतरा और ढहने की कगार पर आ गए कच्चे घरों की दीवारें आसपास से गुजरते हर ग्रामीण को इस कवायद की मंजिल और मंजर की याद दिलाते हुए उलरिके से मिले होमवर्क को पूरा करने की याद दिलाते रहें.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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