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बेफिक्र समाज में एक बीहड़ अनशन

२५ अगस्त २०१४

ऐसा दौर आया है जहां विचारहीनता भी एक मूल्य है. विचारों से परहेज करने वाली एक पीढ़ी सामने है. संघर्ष, तकलीफ और यातना, सामूहिक संवेदना नहीं जगातीं, वे पीड़ित तक सीमित रह गई हैं. ईरोम शर्मिला का अनशन इसकी मिसाल है.

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तस्वीर: picture alliance/AP Photo

मणिपुर की ईरोम शर्मिला, अखबारी रुटीन का किस्सा मान ली गयी हैं. उनकी बातें आंदोलित नहीं करतीं या शायद लोगों ने परेशान होना ही छोड़ दिया है. ये विचारहीनता का दौर है. जो “क्या फर्क पड़ता है” के भाव से शुरू होता है. फिर जेहन, शख्सियत और आखिरकार किरदार पर छा जाता है. ईरोम शर्मिला का अनशन इसीलिए कोई करुणा या सामूहिकता की भावना नहीं जगाता. घूमो-फिरो और भांति भांति की मौज करो, कौन इरोम कैसा अनशन!

यही है विचारहीनता. किसी भी मामले में देखिए. कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति की मृत्यु पर कुछ सिरफिरों ने मिठाईयां बांटी. चित्रकार हुसैन का अपमान हुआ, क्या बीती उन पर. ये तो नामचीन लोग थे. रोज फुटपाथ पर सोने वाले और गाड़ियों से कुचल दिए जाने वाले, भूख से दम तोड़ देने वाले, दंगों और बलात्कार से मार दिए जाने वाले मनुष्यों के बारे में सोचने की फुर्सत किसे है. मानो विचार होना ही पत्थर ढोना हुआ. क्या करें और क्यों करें की दो अतियों के बीच झूलती रहती है विचारहीनता. एक कदम आगे बढ़ाते ही वो दो कदम पीछे करा देती है. जबकि ये देश आख्यानों से लेकर समकालीनता तक विचारों की असंख्य हलचलों और आवाजाही का देश रहा है. हमने कृष्ण से लेकर बुद्ध तक सबका तप तो सुना लेकिन व्यवहार में उसे कितना माना. आगे आम इंसान की तपस्या से भी मुंह मोड़ लिया. संघर्ष तो छोड़ ही दीजिए.

अनशन पर डटी ईरोम शर्मिला कहती है कि मेरा प्रशस्ति-गान न करिए, मुझे भगवान मत बनाइये, मेरे संघर्ष में भागीदार बनिए. इस बात के निहितार्थ समझने होंगे. वो मणिपुर समेत पूर्वोत्तर से ”एएफएसपीए” हटाने की मांग कर रही है. ये कानून सेना को कुछ भी कर सकने का अधिकार देता है. क्या ईरोम विदेशी एजेंट हैं, भारत की संप्रभुता के लिए खतरा हैं या वो अराजकता की मिसाल हैं? लेकिन ऐसे कोई संकेत तो नहीं मिलते. हमें तो बस नाक में नली धंसाए, चौड़े चेहरे और बिखरे हुए बालों वाली, आंखों में एक क्षीण सी चमक और चेहरे पर एक उदास मुस्कान के साथ बिस्तर पर लेटी एक स्त्री ही दिखती है. उसका विचार इतना ही है कि महिलाओं का उत्पीड़न न किया जाए किसी कानून के नाम पर. तो क्या इस विचार से सहमति में किसी को परहेज है. अगर नहीं तो ईरोम शर्मिला के पक्ष में आवाजों की वो बुलंदी क्यों नहीं दिखती जो मुख्यधारा में यूं इतनी सारी है.

विचारहीनता मूल्य में बदल गई है. जैसे ही आप कहते हैं, “चलिए छोड़िए हमें क्या” तो यह मूल्य में ढल जाना हुआ. आज के दौर का एक मूल्य. ये कैसे आ गया. ईरोम शर्मिला के मामले में ही अगर देखें तो भला क्या ऐसा मुमकिन था कि कोई स्त्री इतने लंबे रिकॉर्ड समय के साथ भूख हड़ताल पर है और हम जरा भी विचलित नहीं. सुविधा से आतेजाते विचार भी तो विचारहीनता का ही नमूना हैं. उपभोक्तावाद ने हमें ऐसा बना दिया है. मेरा मेरा की रट. समाज के सामूहिक स्वप्न को बाजार ने निगल लिया. उसका सुर लगता है तो लोग नाचते हैं वरना अपनी अपनी दुनिया में बेसुध हैं. लेकिन बेसुधी में सब नहीं रहते. नलियों से जीवित पर अनशन पर आमादा ईरोम भी तो है.

सरोकार से दूरी की प्रवृत्ति को उकसाने का काम करता है मास मीडिया. वो हमें ऐसे मुद्दों में उलझाए रखता है जिस पर हम कभी गर्व कभी खीझ कभी उलझन प्रकट करते हैं. वो राजनीति हो सकती है या कोई टीवी सीरियल, क्रिकेट, कोई फिल्म या महंगाई. क्या कारण है कि जिस बड़े पैमाने पर मास मीडिया क्रिकेट की हार-जीत या चारों ओर अच्छे दिनों की नापजोख करता रहता है उस पैमाने पर वो हाशिए की जगहों के बारे में नहीं सोच पाता. ईरोम का एक दशक से भी लंबा संघर्ष चंद कसीदों और एक किस्म के हीरोइज्म के हवाले कर दिया जाता है, लेकिन उस महिला का विवेक देखिए कि उसका कहना है कि तारीफ मत करिए, पूजा मत करिए, यहां आइए.

कितने लोग उस किस्म के विकट संघर्ष में जाने को तैयार हैं. विचार की असल परख इसी से होगी. इसी से ये भी स्पष्ट होगा कि विचारहीन रहने में ही भलाई क्यों समझी जाने लगी है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादन: महेश झा