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अपॉस्ट्रोफी का अंत

२६ मार्च २०१४

ब्रिटेन में लाखों की संख्या में साइनबोर्ड बदले जा रहे हैं. इसलिए नहीं कि सड़कों के नाम बदल गए हैं, बल्कि इसलिए कि अब इन नामों को आसान बनाने की मुहिम छेड़ दी गयी है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

अंग्रेजी का अपॉस्ट्रोफी एस ('s) कई लोगों की आंखों में खटक रहा है. यही वजह है कि ब्रिटेन में इसे हटाया जा रहा है, कम से कम साइनबोर्ड पर. मिसाल के तौर पर किंग'स रोड का नाम अब किंग्स रोड हो गया है. इसे बदलने के पीछे दलील यह दी जा रही है कि इस तरह से सड़क का नाम पढ़ने में आसानी होती है.

लेकिन वहीं भाषा प्रेमियों को इस बदलाव से निराशा हो रही है. खास कर तब, जब किंग्स रोड कैम्ब्रिज में है, जिसे अपनी यूनिवर्सिटी और भाषा शास्त्र के लिए जाना जाता है. अपना विरोध दर्ज करने के लिए कई लोगों ने तो रात के अंधेरे में जा कर बदले गए साइनबोर्ड पर काले पेन से अपॉस्ट्रोफी का निशान ही बना डाला.

सरकार का कहना है कि आपातकालीन सेवाओं को प्रभावशाली बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है. एक उदाहरण देते हुए कैम्ब्रिज नगर पालिका के टिम वार्ड ने बताया कि इसी साल एक स्कूली छात्र की मौत हो गयी क्योंकि एम्बुलेंस सही पते पर पहुंच ही नहीं सकी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ड्राइवर एम्बुलेंस में लगे सॉफ्टवेयर से रास्ता खोज रहा था और सॉफ्टवेयर अपॉस्ट्रोफी वाले नामों को खोजने में सक्षम ही नहीं था. इस तरह की घटनाओं को ध्यान में रखते हुए सरकार ने फैसला लिया है कि अब जब भी कहीं किसी नई सड़क को नाम दिया जाएगा तो उसमें किसी भी तरह का विराम चिह्न नहीं लगाया जाएगा. ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में बहुत पहले ही ऐसा किया जा चुका है. लेकिन भाषा के जानकारों का मानना है कि यह भाषा को खराब करने की दिशा में पहला कदम होगा.

अपॉस्ट्रोफी के बाद कॉमा

कैम्ब्रिज स्थित एक पब्लिकेशन हाउस की निदेशक केथी सलमान कहती हैं, "अगर आप हमसे अभी अपॉस्ट्रोफी ले लेंगे, तो अगला कदम होगा कॉमा को छीन लेना." उनका कहना है कि जो लोग सड़कों पर जा कर पेन से अपॉस्ट्रोफी लगा रहे हैं, वे किसी तरह की गुंडागर्दी नहीं कर रहे. उन लोगों का बचाव करते हुए वे कहती हैं, "ब्रिटेन में इस वक्त एक ट्रेंड चल रहा है कि अगर आपको कुछ मुश्किल लगे, तो उस से छुटकारा पा लो."

इस विराम चिह्न को बचाने के लिए ब्रिटेन में एक संगठन भी बन गया है. 'अपॉस्ट्रोफी प्रोटेक्शन सोसाइटी' के संस्थापक जॉन रिचर्ड कहते हैं, "यह एक गंभीर मुद्दा है. मुझे लगता है कि लोग आलसी होते होते जा रहे हैं और मूर्ख भी. और इसका नतीजा यह है कि भाषा का स्तर गिरता जा रहा है. यह एक बहुत ही बुरी मिसाल बन रही है क्योंकि स्कूलों में टीचर हमारे बच्चों को अपॉस्ट्रोफी सिखाते हैं और सड़कों पर उन्हें वह नहीं दिखता."

इसके विपरीत ऐसे भी संगठन हैं जो भाषा के सरल उपयोग पर जोर देते हैं. पिछले तीन दशकों से 'प्लेन इंग्लिश कैम्पेन' चलाया जा रहा है. इस विचारधारा वाले लोग मानते हैं कि भाषा में वैसा कोई भी अंश नहीं होना चाहिए, जिससे वह लोगों के लिए किसी भी तरह की गड़बड़ खड़ी करे. विचारधारा कोई भी हो, पर सभी एक बात से सहमत हैं, कि भाषा में क्या सही है और क्या नहीं, यह बहस फिलहाल आने वाले कई दशकों तक जारी रहेगी.

आईबी/एएम (एएफपी)