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समाज

‘ब्रेन ड्रेन’ के साथ ‘वेल्थ ड्रेन’ भी !

१५ नवम्बर २०१६

एक ओर भारत में उच्च शिक्षा के स्तर को लेकर सवाल उठते हैं तो दूसरी ओर पढ़ने के लिए वे बड़ी संख्या में विदेशों का रुख कर रहे हैं. भारतीय छात्रों के माध्यम से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को अरबों डॉलर मिल रहे हैं.

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Multikulturelle Universitätsabsolventen
तस्वीर: Fotolia/michaeljung

भारत में उच्च शिक्षा के स्तर को लेकर हमेशा ही सवाल उठते रहते हैं. अंतरराष्ट्रीय रेटिंग में भारतीय विश्वविद्यालय पहले 100 संस्थानों में अपनी जगह क्यों नहीं बना पाते हैं? शीर्ष भारतीय संस्थानों में कोई मौलिक शोधकार्य क्यों नहीं होता है? दाखिले में आरक्षण का मुद्दा, ऊंचे अंक हासिल करने के बावजूद दाखिले से वंचित रह जाना, शिक्षक और छात्रों के बिगड़ा हुआ अनुपात, प्रोफेसरों और कुलपतियों की राजनीतिक नियुक्तियां और किस तरह से उच्च शिक्षा के संस्थान अकादमिक भ्रष्टाचार और औसत दर्जे के डिग्रीधारकों के उत्पादन की फैक्ट्रियां बन गए हैं. इन सवालों में एक बड़ा सवाल अब ये भी जुड़ गया है कि इतनी बड़ी संख्या में भारतीय छात्र विदेशों का रुख क्यों कर रहे हैं? और यही नहीं. इन छात्रों के साथ फीस और पढ़ाई का पैसा भी बहकर अमेरिका और यूरोप जा रहा है!

ओपन डोर संस्था की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 में अमेरिकी कॉलेजों में दाखिला लेने वाले भारतीय छात्रों में 25 फीसदी  की वृद्धि हुई और अमेरिकी अर्थव्यवस्था में उन्होंने पांच अरब रुपये का योगदान दिया. सिर्फ अमेरिका ही नहीं बल्कि पिछले कुछ साल में यूरोप और ऑस्ट्रेलिया जाने वाले छात्रों में भी नाटकीय ढंग से वृद्धि हुई है. जबकि इसी दौर में भारत में बड़ी संख्या में उच्च शिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालय खुले हैं और आज भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्थाओं में एक मानी जाती है. 2030 तक भारत में कॉलेज जाने की उम्र वाले 14 करोड़ से अधिक लोग होंगे और ये विश्व का सबसे जवान देश माना जाएगा. ताजा हालात में भारत के लिये ये चुनौती होगी कि वो किस तरह से इन संभावित विद्यार्थियों को स्वदेश में ही रोके और उनकी प्रतिभा और योग्यता का अधिकतम इस्तेमाल कर सके.

ब्रेन ड्रेन की सबसे बड़ी वजह ये मान्यता और कुछ हद तक ये सच्चाई भी है कि विदेशी डिग्री खासतौर पर अमेरिकी डिग्री से नौकरी पाना आसान है. आर्थिक उदारीकरण के बाद मध्यमवर्गीय परिवारों की आय का स्तर बढ़ा है और उनकी दृष्टि में भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली में सीमित अवसर हैं. भारत में चुनिंदा विश्वविद्यालयों में ही पढ़ाई का स्तर ठीक है और सीमित सीटों के कारण वहां दाखिला दुष्कर होता जा रहा है. ज्यादातर छात्र विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित पढ़ने के लिये बाहर जाते हैं. बेशुमार सरकारी स्कॉलरशिप और अनुदान से छात्रों का बाहर जाकर पढ़ने का सपना आसान हो गया है.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय और एसोचैम जैसे संस्थान इस बात पर माथापच्ची कर रहे हैं कि इसे कैसे रोका जाए क्योंकि ये घाटे का क्षेत्र और विशुद्ध रूप से वित्तीय नुकसान का कारण भी बनाता जा रहा है. एसोचैम का कहना है कि प्रतिभा पलायन रोकने के लिये आईआईटी और आईआईएम जैसे और संस्थान स्थापित किये जाने चाहिए और विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने कैंपस खोलने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए या फिर उनके सहयोग से संस्थान स्थापित करने चाहिए. उनके लिए कर रियायतें और प्रोत्साहन दिए जाने का प्रस्ताव भी दिया गया. शिक्षा में निजीकरण के पैरोकार मानते हैं कि उच्च शिक्षा के लिये सिर्फ सरकार पर ही निर्भर रहना उचित नहीं है बल्कि उद्योग और अकादमिक सहयोग से नई संस्थाएं स्थापित करना चाहिए और उनका स्तर बढ़ाया जाना चाहिए. एक नियामक संस्थान जरूर हो लेकिन सरकार का नियंत्रण कम हो. उच्च शिक्षा की फीस बढ़ाई जाए. जो छात्र विदेशों में इतना खर्च करने के लिये तैयार हैं वो स्तरीय शिक्षा के लिये स्वदेश में भी खर्च कर सकते हैं. निर्धन छात्रों का मसला उठ सकता है लेकिन उनके लिये अमेरिका की तरह गारंटी प्रणाली की स्थापना की जा सकती है जहां उन्हें बिना अभिभावकों की सुरक्षा के भी सस्ते लोन मिल जाते हैं. विदेशों में पढ़ने के लिये उदार भाव से दी जा रही सरकारी छात्रवृत्तियों और अनुदानों में कटौती करना भी एक उपाय हो सकता है. ब्राजील ने ऐसा किया है और उसके बाद वहां के छात्रों के विदेश जाने में कमी आई है.

लेकिन सबको शिक्षा सबको काम के मूलभूत अधिकार के संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो उच्चशिक्षा को सीधे सीधे निजी क्षेत्र के हवाले कर देना भी समस्या का हल नहीं हो सकता. विदेश का रुख करने वाले छात्रों के लिए आप एक आकर्षक विकल्प देश में ही जरूर पैदा कीजिए लेकिन इस बहाने समस्त शैक्षिक ढांचे का निजीकरण स्वीकार्य नहीं हो सकता. ‘अर्थ' का ये अनर्थ भी कर सकता है. गुणवत्ता में सुधार दोनों स्तरों पर जरूरी है. अगर खेल प्रतिभा के विकास के नाम पर विराट मुनाफे वाली लीगें खड़ी की जा सकती है तो शिक्षा में क्यों नहीं औद्योगिक घरानों को ऐसे संस्थान खड़े करने के लिए कहा जाए जहां सिर्फ संसाधन संपन्न छात्र ही नहीं बल्कि विपन्न छात्र भी भविष्य संवार सकें. अधिकांश सरकारी संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए एक आमूलचूल बदलाव के महाअभियान की जरूरत है. वहां पसरा हुआ भीषण आलस्य और यथास्थितिवाद इस देश के मानवसंसाधन को दीमक की तरह खा रहा है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी