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भारतीय राजनीति में उत्तराखंड का महत्व

कुलदीप कुमार११ मई २०१६

उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन समाप्त हो गया है और कांग्रेस सरकार बहाल हो गई हैं. उत्तराखंड का घटनाक्रम भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. इसके तात्कालिक और दीर्घकालिक दोनों तरह के परिणाम निकलेंगे.

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कांग्रेस सरकार की सत्ता में बहाली का तात्कालिक परिणाम तो यह होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लगातार गिर रही साख इसके कारण और भी गिरेगी. इसके साथ ही उनके घनिष्ठतम सहयोगी और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का ग्राफ भी नीचे आएगा. पिछले कुछ सालों में उनकी छवि एक अपराजेय रणनीतिकार की बनी थी लेकिन दिल्ली और बिहार के चुनावों में मिली करारी हार और अब उत्तराखंड में हुई किरकिरी से यह छवि ध्वस्त होती नजर आ रही है. उन्नीस मई को पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुडुचेरी के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ जाएंगे. इनमें से केवल असम एक ऐसा राज्य है जहां भाजपा किसी किस्म की चुनावी उपलब्धि की उम्मीद कर सकती है. शेष चार राज्यों में उसके प्रदर्शन में कोई उल्लेखनीय अंतर की आशा नहीं है.

अनेक राजनीतिक पर्यवेक्षकों की राय है कि केंद्र में अपने बलबूते पर सत्ता में आने के बाद से लगातार भाजपा के नेता, विधायक, सांसद और मंत्री जिस प्रकार के भड़काऊ और समाज को बांटने वाले बयान देते आ रहे हैं उनसे लोगों में सरकार के प्रति भरोसे के बजाय आशंका ही अधिक पैदा हो रही है. इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं का नाम लगभग पूरी तरह से निकाल देने से भी यह संदेश जा रहा है कि भाजपा को सत्ता का नशा चढ़ गया है. नरेंद्र मोदी इस समूचे प्रकरण पर चुप रहते हैं जिसके कारण लोगों की आशंकाएं और अधिक पुष्ट होती हैं.

जिस तरह से दिल्ली की निर्वाचित सरकार को उपराज्यपाल और सीबीआई के जरिये परेशान किया जा रहा है और जिस तरह से पहले अरुणाचल प्रदेश और फिर उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकारों को हटा कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया ताकि विधायकों को फोड़ कर भाजपा की सरकार को गद्दी पर बैठाया जा सके, उससे भी यह धारणा मजबूत हुई है कि भाजपा केंद्र-राज्य संबंधों की नजाकत को समझे बिना मनमानी करने पर उतारू है. लेकिन अब उत्तराखंड में मुंहकी खाने के बाद आशा की जानी चाहिए कि वह आने वाले तीन सालों के दौरान इस तरह की कोई और कोशिश नहीं करेगी.

बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार करते हुए नरेंद्र मोदी ने लगातार बिहार और बिहारियों की आलोचना की, दरभंगा का नाम लेकर उसे आतंकवाद का गढ़ बताया और कहा कि बिहार केवल अपराध, अपहरण और बंदूक के इस्तेमाल में आगे है, बाकी सभी चीजों में वह बेहद पिछड़ा हुआ है. उन्होंने देश-विदेश में बिहारी मजदूरों के पाये जाने की भी खिल्ली उड़ाई. इसी तरह केरल में चुनाव प्रचार करते हुए उन्होंने उसकी तुलना सोमालिया से करके मलयाली समुदाय को नाराज कर दिया है. कुल मिला कर मोदी की छवि एक ऐसे प्रधानमंत्री की बन रही है जो राज्यों, उनकी जनता और उनकी संस्कृति का सम्मान नहीं करता और उनके साथ टकराव का रास्ता अपनाना बेहतर समझता है.

उत्तराखंड के राजनीतिक घटनाक्रम ने यह सिद्ध कर दिया है कि वहां कांग्रेस के विधायक तोड़ कर राष्ट्रपति शासन के जरिये भाजपा की सरकार बनाने का प्रयास संविधान की आत्मा के कितना खिलाफ था और केंद्र सरकार ने सत्तारूढ़ पार्टी के संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए संविधान के अनुच्छेद 256 का किस तरह दुरुपयोग किया था. वह भी तब, जब बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट दशकों पहले व्यवस्था दे चुका है कि किसी भी सरकार के बहुमत का परीक्षण केवल विधानसभा या संसद में ही होगा.

कांग्रेस का मनोबल अचानक उछाल पर है. नरेंद्र मोदी और उनके पार्टी सहयोगी और राज्यसभा में सरकार द्वारा नामजद सदस्य सुब्रहमण्यन स्वामी जिस तरह से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर जिस तरह से उनकी इटली की पृष्ठभूमि का हवाला देकर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं, उसे देखते हुए सत्तारूढ़ पार्टी और प्रमुख विपक्षी दल के बीच संबंध और भी अधिक खराब होने की आशंका है. आने वाले तीन साल राजनीतिक दृष्टि से काफी गहमागहमी के सिद्ध हो सकते हैं.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

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