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भारतीय वाम का आराम

२४ अप्रैल २०१३

आज भारत समेत दुनिया भर में आर्थिक उदारवादी एजेंडा झंडा गाड़ चुका है. निवेश की आंधियां आर्थिक उपनिवेश की पताकाएं फहरा रही हैं. बड़े पैमाने पर जमीन अधिग्रहण हो रहा है, सवाल उठना लाजिमी है कि ऐसे में वामपंथी कहां हैं.

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तस्वीर: DW

भारत में बीते कुछ बरसों से बेतहाशा निर्माण जारी हैं, प्राकृतिक और हर किस्म के संसाधनों की अधिकृत और गैरअधिकृत लूट जारी है, समाज में भयावह ढंग से आर्थिक और सामाजिक अपराध बढ़ गए हैं, तरक्की एक अजीबोगरीब विकरालता के साथ आम जन को निगल रही है, हिंसाएं जारी हैं और ताकतवरों ने वंचितों की निर्णायक बेदखली का अभियान सा चलाया हुआ है. ऐसे इन उदासी और अवसाद के समांतर, खिलखिलाहटों और रंगीनियों से भरे वक्तों में, प्रतिकार और प्रतिरोध की शक्तियां सिमट सी गई हैं. भारत के संदर्भ में हमारा आशय यहां मुख्यधारा के उन वामपंथी दलों से है जो संसदीय राजनीति में सक्रिय हैं.


पश्चिम बंगाल में सत्ता छिन जाने के बाद लगता है सीपीएम और उसके वाम सहयोगी हतप्रभ से हैं और मानो उस सदमे से उबर नहीं पाए हैं. क्या वे पांच साल पूरे होने का इंतजार कर रहे हैं. उनकी लड़ाई पश्चिम बंगाल और केरल और त्रिपुरा तक सीमित नहीं है, वे भी मानेंगे. देश के दूसरे हिस्सों में और ऐन दिल्ली में जो आंदोलन हाल के दिनों में हुए हैं उनमें वाम भागीदारी अलसायी सी रही है. उधर उग्र वाम के हवाले देश के आदिवासी हिस्से हैं जहां स्थानीय आदिवासियों के सामने माओवाद है और राज्य का दमन तंत्र है. दिल्ली में अण्णा आंदोलन की लहर, फिर इस लहर का विलोप, लोकपाल का मुद्दा, संसद में महिला आरक्षण, समाज में स्त्री सुरक्षा, रेप कांड, आर्थिक अपराधों के एक के बाद एक विस्फोटक सिलसिले, महाराष्ट्र में किसानों की मौतें, बड़े बांधों के सवाल, जल संकट, जमीन अधिग्रहण, बांध और दूसरी परियोजनाएं, खाद्य सुरक्षा, ऐसे कई जेनुइन मामले हैं जहां हमने वाम का सामूहिक स्वर नहीं सुना. इतने अलग थलग होकर जनविरोधी शक्तियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता है, ये सभी जानते हैं.

Streik in Indien
कुछ इलाकों में ही सिमटा वाम का असरतस्वीर: dapd

यूपीए सरकार की पहली पारी में ये किसी से छिपा नहीं है कि वाम दलों ने अपने दबाव से कई ऐसी नीतियों को लागू नहीं होने दिया जिनका असर आम जनता पर भारी पड़ता. कई कानून ऐसे भी थे जिनमें वाम दलों का हस्तक्षेप था और उनके सुझाए प्रस्तावों को शामिल किया गया था. यूपीए-दो में वाम दबाव की गैरमौजूदगी का असर भी दिख ही रहा है. और यही चिंता की बात है.


वामपंथ के ही जानकारों की राय है कि प्रतीकात्मक विरोधों, प्रतिक्रियाओं, बयानों और संसद में निर्विकार बहसों से तो बात बनती नहीं दिखती. क्योंकि ये सब जानते हैं, मामले और लड़ाइयां पेचीदा हैं. मिसाल के लिए कोका कोला का बेधड़क एक राज्य से दूसरे राज्य में निवेश के लिए चले जाना, भारी निवेश करना, सरकारों को लुभाना फिर जमकर भू जल का दोहन करना, स्थानीय इकोलॉजी को प्रदूषित करना जारी है, लेकिन इस आर्थिक उपनिवेशी अभियान का प्रतिरोध स्थानीय जनता और प्रभावित लोग अपने दम पर अपने सीमित दायरे और संसाधनों में कर रहे हैं, जबकि वाम का चारित्रिक दायित्व ऐसे प्रतिरोधों की रक्षा और सहयोग और नेतृत्व का रहा है.

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क्या वाम ने खो दी इनकी आवाजतस्वीर: DW/Suhail Waheed

पूर्वी भारत से मध्य भारत और पश्चिम भारत को छूता हुआ और दक्षिण भारत तक फैला हुआ जो इलाका है जिसे रेड कॉरीडोर कहा जाता है और जहां माओवादी राज्य सत्ता के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं और आदिवासी अपनी ऐतिहासिक स्तब्धताओं में घिरे हुए से हैं, वहां मुख्यधारा का वाम ठिठका हुआ नजर आता है. अपने प्राकृतिक संसाधनों की हिफाजत के लिए मरते खपते आदिवासियों को वाम के एक वृहद संघर्ष से जोड़े जाने की बहस अब उठने लगी है.


ऐसे समय में वामपंथी दल सोए हुए से दिखते हैं. ये एक बहाना ही होगा अगर कहा जाए कि संघ के पास राजनीति से लेकर समाज तक हर जगह संसाधनों की प्रचुरता है, उन्हें तंत्र फैलाने के लिए मशीनरी मिली हुई है, वाम के पास क्या है. माना जाता है कि वाम के पास चेतना तो है, ताप और ऊर्जा तो है. लातिन अमेरिकी मिसालें सबके सामने हैं, जिन्होंने सोवियत और चीन के मॉडल खारिज किए, अपना मॉडल बनाया. उन देशों ने समाजवाद को स्थानीय संघर्षों की विरासत और ईसाईयत के महान उसूलों से जोड़ा, फिर जनता जुड़ी और वे जनता के प्रिय बन सके. हमारा वाम तो लगता है बस एक वैसी ही क्रांति चाहता था जैसी अक्तूबर 1917 में रूस में की गई थी. लेकिन क्रांतियां अब वैसी की वैसी नहीं हो सकती, ये लेफ्ट को भी पता है. संसदीय राजनीति में वे आ गए हैं. सरकारें वैसी ही चलाते रहे हैं जैसी कि गुजरात में या बिहार में या उत्तर प्रदेश में या राजस्थान में दूसरे नेता और दूसरे दल चला रहे हैं. लड़ाइयां दुष्कर होती जा रही हैं और पुरानी मान्यताओं पर धूल और जाले लग चुके हैं.


आर्थिक रूप से डांवाडोल और सामाजिक निवेश के नाम पर ठहरी हुई दुनिया में ये बहस फिर से चल पड़ी है कि क्या पूंजीवादी तरीकों से शासन या समाज या अर्थ को संचालित किया जा सकता है. कई विमर्श सामने आए हैं. और कार्ल मार्क्स को याद किया जा रहा है. यानी मार्क्सवादी मूल्यों की बातें उठने लगी हैं. इसीलिए भारत में भी वामपंथ को एक बड़ी भूमिका में देखे जाने की उम्मीद की जा रही है.


ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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