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भारत चीन रिश्तों पर हिमालय का कोहरा

९ मई २०१३

भारत और चीन के बीच गतिरोध समाप्त होने के बाद जहां विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की बीजिंग यात्रा की राह का रोड़ा हट गया है, वहीं दोनों देशों के बीच गर्मजोशी के संबंध बनने की संभावना पर अनिश्चितता के बादल भी मंडराने लगे हैं.

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तस्वीर: Rouf Bhat/Afp/Getty Images

खुर्शीद की बीजिंग यात्रा का उद्देश्य चीन के प्रधानमंत्री ली केचियांग की भारत यात्रा के लिए जमीन तैयार करना है. प्रधानमंत्री ली 20 मई से भारत की यात्रा पर आ रहे हैं. इस यात्रा को दोनों ही देश बहुत महत्व दे रहे थे क्योंकि प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए ली ने भारत को ही चुना है. चीन अक्सर अपने आशय सांकेतिक भाषा में प्रकट करता है, इसलिए उनके इस निर्णय को बहुत महत्वपूर्ण संकेत माना जा रहा था और आशा की जा रही थी कि उनकी यह यात्रा दोनों देशों के संबंधों को आगे ले जाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाएगी. लेकिन लद्दाख में चीनी अतिक्रमण से उत्पन्न गतिरोध के कारण बने तनावपूर्ण माहौल में ऐसा हो पाएगा, इसमें संदेह है. किसी भी लोकतांत्रिक देश की सरकार व्यापक जनाक्रोश की अनदेखी नहीं कर सकती, वह भी तब जब संसदीय चुनाव होने में एक वर्ष से भी कम समय रह गया हो और वह स्वयं एक के बाद एक बड़े घोटाले में फंसती जा रही हो.

चीन के रणनीति विशारद सुन त्जु का कथन है कि सर्वश्रेष्ठ युद्ध वह है जिसमें बिना लड़े ही शत्रु का पराभव कर दिया जाये. लद्दाख में चीन ने अपनी इसी युद्ध कला का प्रदर्शन किया है और बिना लड़े भारत से अपनी बात मनवा ली है. भारतीय सैनिक उन स्थाई बंकरों से हट रहे हैं जहां से वे काराकोरम मार्ग पर नजर रख सकते थे. बदले में चीनी सैनिकों ने वे पांच तंबू उठा लिए हैं जो उन्होंने भारतीय सीमा में 19 किलोमीटर घुसकर गाड़ दिये थे. इस घटना द्वारा चीन क्या संकेत देना चाहता है? शायद यह कि अब वह सीमा-विवाद को जल्दी से जल्दी सुलझाना चाहता है ताकि इसे भूलकर भविष्य की ओर देखा जा सके.

इस समय वह भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है और दोनों देशों के बीच 66 अरब डॉलर का व्यापार होता है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि आने वाले वर्षों में भारत चीन का पांचवां सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार होगा, यानि चीन के लिए भारत का महत्व अबसे भी कम हो जाएगा. चीन विश्व की आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर चुका है और उसकी अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से लगभग पांच गुना बड़ी है. विकास के मामले में भारत चीन से कम से कम एक दशक पीछे है. 29 नवंबर 1996 को नई दिल्ली में हुए एक समझौते के तहत दोनों देशों के बीच सहमति बनी थी कि सीमा-विवाद को सुलझाने की कोशिशें जारी रखते हुए वे अन्य सभी क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने का प्रयास करेंगे. उस समय चीन अपने आर्थिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना चाहता था. अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होने के बाद अब वह पूरे एशिया में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है. भारत ही नहीं, वह जापान, वियतनाम, मलेशिया और यहां तक कि ब्रुनेई तक के साथ सीमा विवाद भड़का रहा है. यह उसके बढ़ रहे आत्मविश्वास और महत्वाकांक्षा की निशानी है. चीनी सेना जिस तरह से देप्सांग घाटी से उतर कर मैदान में चली आई, वह नवंबर 1996 के समझौते का सरासर उल्लंघन था. कहना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री ली केचियांग की यात्रा के ठीक पहले भारत के साथ संबंधों में जानबूझकर तनातनी पैदा करके चीन क्या हासिल करना चाहता है, क्योंकि उसे भी यह मालूम है कि भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो इस विचार के हैं कि चीन का सामना करने के लिए अमेरिका के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलना जरूरी है. सीमा पर तनाव पैदा होने से इस विचार को और अधिक समर्थन मिलता है.

Grenzkonflikt Indien China Ladakh
तस्वीर: Reuters/Danish Ismail

अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि चीन भारत के साथ वास्तविक संघर्ष चाहता है. अभी भी उसकी प्राथमिक दिलचस्पी अपनी अर्थव्यवस्था के विकास में है. लेकिन इसके साथ ही उसकी दिलचस्पी भारत को घेरने में भी है क्योंकि एशिया में केवल वही एक ऐसा देश है जो देर-सबेर उसे चुनौती दे सकता है. दुनिया में भारत इस समय एकमात्र ऐसा देश है जहां युवाओं की जनसंख्या सबसे ज्यादा है. इसलिए आज भले ही वह चीन से पीछे हो, लेकिन अपनी युवाशक्ति के बल पर वह आने वाले दशकों में चीन और अपने बीच के अंतर को काफी हद तक कम कर सकता है. इसलिए चीन भारत को कुछ-कुछ समय बाद ऐसे झटके देकर उलझाए रखना चाहता है. उधर भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान में भी चीन के प्रति नीति को लेकर बहुत अधिक स्पष्टता नहीं है. यह बात भी चीन के पक्ष में जाती है.

प्रधानमंत्री ली केचियांग की भारत यात्रा से पहले जो उम्मीदें थीं, अब उन पर कुछ ठंडा पानी पड़ गया है. लेकिन अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी. वे भारत आने के बाद किस प्रकार का रुख प्रदर्शित करते हैं, बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा. बहुत संभव है कि ली भारत की आहत भावनाओं को सहलाने की पुरजोर कोशिश करें और आर्थिक क्षेत्र में कुछ ऐसे प्रस्ताव पेश करें जिन्हें अस्वीकार करना भारत के लिए असंभव हो. ताली दोनों हाथों से ही बजती है. अगर दोनों देश संबंधों को और अधिक बेहतर बनाने के लिए उत्सुक हैं, तो हाल के तनाव को भुलाया भी जा सकता है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा