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समाज

भारत में कानूनी ढांचे से हारता न्याय

१७ फ़रवरी २०१७

भारत में न्याय बार बार पुलिस और कानूनी ढांचे से पराजित हो रहा है. दिल्ली ब्लास्ट का फैसला विस्तार से इसे समझाता है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

दिल्ली सीरियल ब्लास्ट में अदालत के फैसले से एक बार फिर पुलिस के जांच तंत्र की कलई खुल गई. फैसले का लबोलुआब यह निकला कि दिल्ली पुलिस ने जिन्हें आरोपी बनाया उनमें से महज एक आतंकी तो निकला लेकिन दिल्ली सीरियल ब्लास्ट से उसके भी तार पुलिस नहीं जोड़ पाई.  अदालत ने साफ कहा कि आरोपी, आतंकी तो हैं मगर दिल्ली ब्लास्ट में इसका हाथ नहीं है.

साल 2005 में दीवाली की तैयारियों के बीच दिल्ली में तीन जगहों पर हुए सिलसिलेवार धमाकों ने 67 लोगों की जान ले ली थी. इस आतंकी हमले की पुलिस और पटियाला हाउस कोर्ट ने 11 साल तक परत दर परत जांच की. पुलिस और अन्य जांच एजेंसियां ऐसी पुख्ता जांच ही नहीं कर पा रही हैं जो अदालत में टिकाऊ साबित हो. इसका फायदा अपराधियों को मिलता है और नुकसान जांच में फंसे निर्दोष को उठाना पड़ता है. 

पुलिस बनाम कोर्ट

सभी को चौंका देने वाले अदालती फैसले से जुड़े इस मामले में पुलिस को हर कदम पर मुंह की खानी पडी. अव्वल तो पुलिस को तीन आरोपी पकड़ कर अदालत में इनके खिलाफ आरोपपत्र दायर दायर करने में तीन साल लगे. पुलिस की शुरुआती खामी साल 2008 में दायर उसके अपने ही आरोपपत्र में उजागर हो गई जब उसने अदालत को बताया कि हमले के पांच मुख्य साजिशकर्ताओं की पुख्ता पहचान तो हो गई है लेकिन वे पकड़ से बाहर है. इतना ही नहीं पुलिस ने खुफि‍या एजेंसियों की मदद से पांचों साजशिकर्ताओं अबु ओजफा, अबु अल कामा, राशिद, साजिद अली और जाहिद के पाकिस्तानी कश्मीर में छुपे होने की निशानदेही भी कर ली. इन पांचों को अंत तक पकड़ पाने में नाकाम रही पुलिस ने पकडे गए तीन आरोपियों, तारिक अहमद डार, मोहम्मद रफीक और अहमद फाजली को ही साजिशकर्ता साबित करने में पूरा जोर लगा दिया. पुलिस के लिए यह आत्मघाती रणनीति साबित हुई. 

नहीं जुड सके घटना से तार

पुलिस को तब बड़ा झटका लगा जब दो आरोपियों रफीक और फाजली को अदालत ने सभी आरोपों से मुक्त कर दिया. जबकि तीसरे आरोपी डार को अदालत ने साजिश से जुडा मानते हुए गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून के उल्लंघन का दोषी पाया. पुलिस सिर्फ इतना साबित कर पाई कि डार के संबंध लश्कर ए तैयबा से हैं. लेकिन पुलिस दिल्ली धमाकों में आरोपियों की भूमिका के तार वारदात से नहीं जोड़ पाई. लिहाजा अदालत ने गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 38 व 39 के तहत डार को प्रतिबंधित संगठन लश्कर से ताल्लुक रखने और आर्थिक मदद पहुंचाने का दोषी ठहराते हुए इस अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम 10 साल की कैद की सजा सुना दी. हालांकि डार 11 साल से जेल में बंद है इसलिए अब उसे यह सजा काटने की जरूरत नहीं होगी. 

पुलिस की पांच चूकें

पुलिस जांच की पांच कमियां भी निर्णायक साबित हुईं. पुलिस द्वारा आरोपियों के मोबाइल फोन के असली मालिकों का पता न लगा पाना, परिस्थितिजन्य साक्ष्य तक न जुटा पाना, आरोपियों की आवाज के नमूने लेकर इनका टेलीफोनिक संदेशों से मिलान न करना, पेश किए गए गवाहों द्वारा आरोपियों को प‍हचानने से मुकरना और उन होटल वालों की गवाही न लेना जिनमें आरोपी ठहरे थे, जैसी अहम चूकें शामिल हैं. और तो और पुलिस जो बात आरोपियों से सख्ती के बल पर नहीं उगलवा सकी, अदालत में जज ने डार को परिजनों से मिलने देने की इजाजत देने की बात कह कर वह सब कुछ उगलवा लिया जिसके आधार पर उसे लश्कर से ताल्लुक रखने का दोषी ठहराया गया. जबकि पुलिस आरोपियों के आपस में संबंधों के तार भी नहीं जोड़ सकी.

मजेदार बात यह रही कि चश्मदीद गवाहों ने भी घटनास्थल पर विस्फोटक होने की बात तो स्वीकार की लेकिन आरोपियों की वहां किसी भी तरह की मौजूदगी से इंकार कर दिया. नतीजतन सभी आरोपियों को देशद्रोह, हत्या और हत्या के प्रयास एवं आतंकी गतिविधि निरोधक कानून के आरोपों से सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया.

पुलिस के पास एक मौका और

गौरतलब है कि सबूतों के अभाव में आरोपियों को बरी किया जाना ही पुलिस को अग्रिम अदालत में अपील का मजबूत आधार देगा. पुलिस के लिए अभी भी मौका है कि इस नाकामी से सबक लेकर पुख्ता सबूतों के साथ मामले को अंजाम तक ले जाए. हालांकि 11 साल तक मुख्य साजिशकर्ताओं से दूर रही पुलिस के लिए अब उन्हें पकड़ पाना आसान नहीं होगा.         

मुआवजे की मांग

पुलिस की नाकामी का दूसरा बड़ा संकट अब सरकार के सामने आ सकता है. बरी किए गए आरोपियों के परिजन अब पुलिस की लचर जांच को व्यवस्था की खामी बताते हुए 11 साल से जेल में पड़े आरोपियों का जीवन तबाह होने की दलील के साथ मुआवजे की मांग कर रहे हैं. एक तरफ हमले के पीड़ि पक्षकार इंसाफ के तराजू पर सवाल उठा रहे हैं तो अदालत के बाहर आरोपी रफीक की मां महमूदा ने दिल्ली पुलिस से उसके बेटे के 11 साल वापस मांगे हैं. महमूदा का कहना है कि पुलिस ने रफी‍क को कश्मीर से जब पकड़ा था तब वह इस्लामिक स्टडीज में एमए कर रहा था. कश्मीर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति अब्दुल वाहिद कुरैशी ने भी अदालत को हलफनामे में बताया था कि जब ब्लास्ट हुए उस समय रफीक क्लास में पढ़ रहा था. ऐसे पुख्ता सबूतों से लैस महमूदा का अपने बेटे की जवानी, जेल में खपा देने के एवज में मुआवजे का दावा ठुकराना सरकार के लिए आसान नहीं होगा. इतना ही नहीं अगर सरकार को मुआवजा देने की नौबत आती है तो यह भी पुलिस तंत्र की नाकामी के लिए ए‍क नया आयाम बनेगा.  

गुरुवार को आए इस अनपेक्षित फैसले से साफ है कि न तो न्यायपालिका जटिल कानूनी प्रक्रिया के मानकों में ढील देने को राजी है और ना ही पुलिस अपने जांच तंत्र को हर सवाल की कसौटी पर अकाट्य बनाने को तत्पर है. ऐसे में विधि अपने ही उद्देश्य से बार बार पराजित हो रही है. वहीं दूसरी ओर मुकदमा दर मुकदमा हारती पुलिस, अपराध ही नहीं देशद्रोही गत‍विधियों को भी रोक पाने में लाचार साबित हुई है. कुल मिलाकर अपराधियों और आतंकियों की पौ बारह है और महमूदा सरीखे अनगिनत पीड़ित पक्षकार सिर्फ व्यवस्थागत खामियों का दंश झेलने को अभिशप्त हैं.  

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