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समाज

भारत में बलात्कार क्यों होते हैं?

नेहल जौहरी
२० दिसम्बर २०१९

हर 16 मिनट में भारत में कहीं ना कहीं किसी लड़की का बलात्कार होता है. बलात्कार भारत के लिए एक लैंगिक बीमारी की तरह है जो 21वीं सदी में लैंगिक विभाजन और लचर न्याय व्यवस्था के कारण बढ़ती जा रही है.

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Indien Protest gegen der Vergewaltigung einer Studentin in New Delhi
तस्वीर: Reuters/S. Siddiqui

हाल ही में इसका भयावह रूप 27 नवंबर को सामने आया जब तेलंगाना के शमसाबाद में चार लोगों ने काम से लौटते वक्त एक वेटनरी डॉक्टर का  पहले बलात्कार किया और फिर उसे जला कर मार डाला. कहा जा रहा है कि इन लोगों ने पहले डॉक्टर का स्कूटर पंचर कर दिया था और फिर मदद के बहाने उसे अपने साथ ले गए.

देश अभी इस घटना से उबरा भी नहीं था कि एक ही हफ्ते बाद उन्नाव में 23 साल की एक बलात्कार पीड़िता को कथित रूप से उसके साथ बलात्कार करने वालों ने जला कर मारने की कोशिश की. बलात्कार के आरोपियों को महज 10 दिन पहले ही जमानत पर रिहा किया गया था. बीते दिनों में ऐसी कई और घटनाएं सामने आई हैं और सरकार के साथ ही समाज भी इसकी वजहों की तलाश में है.

अपराध मनोवैज्ञानिक और दिल्ली में वकील अनुजा त्रेहान कपूर का कहना है, "लोगों को जमानत इसलिए मिल जाती है क्योंकि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलता है. आरोपियों को अकसर पुलिस, राजनेता और वकीलों से संरक्षण मिलता है, पूरे सिस्टम की ही अवहेलना होती है और वह बेअसर हो जाता है." अनुजा त्रेहान ने 2012 के निर्भया कांड के दोषियों से भी बातचीत की है. उन्नाव की पीड़ित लड़की ने जब पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की थी तब बहुत दिनों तक उसकी रिपोर्ट ही नहीं लिखी गई. 40 घंटे तक जली हालत में रहने के बाद आखिर उसने अस्पताल में इंसाफ मांगते मांगते दम तोड़ दिया.

Indien Kaschmir Vergewaltigung und Tod einer Achtjährigen
तस्वीर: Reuters/

महिलाओं से दोयम दर्जे का व्यवहार

रिसर्चर भारत में बलात्कार के वजहों की खोज में गहरी छानबीन कर रहे हैं और उन्हें इसकी जड़ें लैंगिक पूर्वाग्रहों और नियमों में दिखाई देती है.लैंगिक समानता के लिए काम करने वाली डॉ. श्रुति कपूर का कहना है, "यह आम समस्या है. जहां पुरुषों और लड़कों को बहुत ज्यादा प्रमुखता दी जाती है, महिलाओं को दूसरे दर्जे का समझा जाता है."  उनका कहना है कि कम संसाधन वाले गरीब और मध्यमवर्ग के परिवारों में हमेशा लड़कों को पढ़ाई लिखाई और दूसरी सुविधाओं में लड़कियों के मुकाबले प्राथमिकता दी जाती है.

श्रुति कपूर ने एक ट्रस्ट बनाया है जो बलात्कार पीड़ितों की मदद करने के साथ ही उन्हें सशक्त बनाने के लिए कई कार्यक्रम चलाता है. श्रुति कपूर कहती हैं, "हम बहुत छोटी उम्र में ही इसका समावेश कर देते हैं, उनके अधिकार, उनकी इच्छाएं, उनकी राय उतनी अहम नहीं हैं जितनी कि लड़कों की. ध्यान इस बात पर रहता है कि उन्हें बहुत शुरू से ही परिवार की सेवा करने की शिक्षा दी जाती है." हालांकि इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि बहुत से परिवार इसके अपवाद भी हैं.

लड़कियों और महिलाओं के साथ हिंसा की शुरुआत अकसर उनके आसपास के माहौल में ही होती है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने हाल ही में 2017 के आंकड़े जारी किए हैं. इनके मुताबिक 93 फीसदी बलात्कार के मामलों में अपराधी पीड़ित को जानने वाला होता है. ये लोग परिवार के सदस्य, दोस्त, पड़ोसी, नौकरी देने वाले और यहां तक कि ऑनलाइन दोस्त भी हो सकते हैं.

श्रुति कपूर का कहना है, "हम महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बना सकते हैं लेकिन आखिरकार उन्हें उसी घर में जाना होता है जहां महिलाओं के प्रति दुर्भावना रखने वाले पुरुष हैं. यह एक कठिन लड़ाई है." उनका कहना है कि इसके समाधान के लिए हमें महिलाओं के साथ पुरुषों को भी समझाना होगा. हमें पूरे समाज को अपने साथ लेना होगा और कई पीढ़ियों के बीच काम करना होगा."

भारत के नौजवानों की दोबारा पढ़ाई

पुणे का एक गैरलाभकारी संगठन यही काम करता है. एक्शन फॉर इक्वलिटी प्रोजेक्ट के तहत इक्वल कम्युनिटी फाउंडेशन समाज के निचले तबके के किशोरों को पुणे में ट्रेनिंग देने की कोशिश कर रहा है. इन बच्चों के साथ काम करने वाले प्रवीन कातके और राहुल कुसुरकर का कहना है, "ट्रेनिंग में आने से पहले लड़के यही मानते थे कि पश्चिमी अंदाज के कपड़े पहनने वाली लड़कियां खराब चरित्र वाली होती हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जा सकता है क्योंकि वो ऐसा ही चाहती हैं."

ये लोग किशोर बच्चों के साथ चर्चा करते हैं. इन बच्चों की उनके समुदाय की ही लड़कियों से बातचीत कराई जाती है. जब उन्हें पता चलता है कि लड़कियों को हर रोज किस तरह की पाबंदियों और हिंसा का सामना करना पड़ता है, तब उन्हें उनसे सहानुभूति होती है. इससे उन्हें यह समझने में मदद मिलती है कि लड़कियों से बात करना एक सुखद काम भी हो सकता है. इस कोशिश का एक मकसद सेक्सुअलिटी, सहमति और एक दूसरे के लिए सम्मान की भावना पैदा करना है. आमतौर पर भारत के स्कूलों में इस विषय पर कोई बात नहीं होती.

प्रवीण और राहुल भारत और दुनिया में बार बार होती बलात्कार की घटनाओं से बहुत चिंतित होते हैं. उनका कहना है, "हम मानते हैं कि पुरुष और लड़के प्राकृतिक रूप से हिंसा की प्रवृत्ति नहीं रखते लेकिन सामाजिक और पितृप्रधान समाज के नियमों से उनमें इसकी प्रवृत्ति जगती है. इसलिए हर पुरुष इस समस्या का हिस्सा नहीं है लेकिन हर आदमी इसके समाधान का हिस्सा हो सकता है."

भारत में विजिलांटे का उभार

भारत जैसे देश में जहां बलात्कार के मामलों में दोषी ठहराने की दर अब भी महज 32 फीसदी है, तेलंगाना के मामले में आरोपियों को पुलिस ने गोली मार दी. पुलिस का कहना है कि घटना की जांच के दौरान दोषियों ने उन पर हमला कर भागने की कोशिश की और इस दौरान पुलिस की कार्रवाई में वो मारे गए. बहुत सारे लोगों ने, जिनमें महिलाएं भी शामिल थीं पुलिस की कार्रवाई को न्याय कहा. सोशल मीडिया वीडियो में हैदराबाद की महिलाओं को इस पर मिठाइयां बांटते और पटाखे चलाते भी देखा गया.

लेकिन भारत को अब कुछ नई सच्चाइयों का सामना करना है. यह सच्चाई है न्याय व्यवस्था की अक्षमता जिसकी वजह से विजिलांटे समूह या फिर भीड़ न्याय के लिए अपना रास्ता खुद बना रहे हैं.  मानवाधिकार आयोग इस मामले की जांच में जुट गया है. विजिलांटे गुटों के सक्रिय होने के दो पहलू हैं. एक तरफ सजा है तो दूसरी तरफ कार्रवाई का ना होना. 2012 में तहलका पत्रिका ने एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए दिखाया कि दिल्ली की पुलिस में काम करने वाले लोग भी बलात्कार पीड़ितों के बारे में क्या सोचते हैं. इस दौरान पता चला कि ज्यादातर पुलिस वालों का मानना था कि महिलाओं का बलात्कार तभी होता है जब वो "ऐसा चाहती" हैं. इन्हीं पुलिस वालों पर बलात्कार के मामलों में रिपोर्ट लिखने से लेकर जांच करने तक की जिम्मेदारी होती है.

क्या सरकार की कोशिशें पर्याप्त हैं?

इन पुलिस वालों का कहना है कि महिलाएं अपनी इच्छा अपने कपड़ों से, शराब पीकर या फिर दफ्तरों में पुरुषों के साथ काम करने जाकर जताती हैं. इस दौरान छिपे हुए कैमरे से उनको यह कहते हुए भी रिकॉर्ड किया गया कि जब कोई महिला किसी पुरुष के साथ सेक्स करना चाहती हो और उसमें पुरुष को कोई दोस्त भी शामिल हो जाए तो उसे शिकायत नहीं करनी चाहिए. अनुजा त्रेहन कहती हैं, "पहली समस्या है एफआईआर. पुलिस कानून के मुताबिक अपना काम नहीं करती और नैतिक पहरेदारी की वकालत शुरू कर देती है. वो दोनों पक्षों से मामले को आपस में सुलझाने के लिए कहते हैं. उनकी राय में केस करने से पीड़ित परिवार को शर्मिंदा होना पड़ेगा."

2012 में निर्भया कांड के बाद भारत में छह फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए. उनका मकसद यौन हिंसा के पीड़ितों को जल्द न्याय दिलाना था. हालांकि जजों और धन की कमी के कारण उनका पर्याप्त असर नहीं हो सका है.  इस बीच बहुत से लोगों को प्रधानमंत्री की चुप्पी भी खल रही है. बीते हफ्तों में इतना कुछ हुआ लेकिन अब तक उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं कहा. उनका ट्विटर अकाउंट भी इस मामले में खामोश है.

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