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गंभीर है जाति और नस्लभेद की समस्या

४ फ़रवरी २०१६

बेंगलुरू में तंजानियाई छात्रा के साथ दुर्व्यवहार से एक बार फिर भारत में नस्लभेद, यौन उत्पीड़न और मर्दवाद की समस्या सामाजिक-राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आ गई है. इस दिल दहला देने वाली घटना के साथ ये तीनों पहलू जुड़े हैं.

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तस्वीर: Irna

पिछले कुछ वर्षों के दौरान देश के विभिन्न भागों में ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जिनमें आदिवासी और दलित महिलाओं को या ऐसी युवतियों को जिनका किसी अन्य जाति के पुरुष के साथ प्रेमसंबंध हो, सार्वजनिक रूप से नंगा करके सड़कों पर दौड़ाया गया या उनका जुलूस निकाला गया. क्योंकि बेंगलुरू की घटना एक ऐसी छात्रा के साथ हुई है जो अश्वेत है, इसलिए इसके साथ नस्ली भेदभाव और रंगभेद का पहलू भी जुड़ गया है.

भारत एक प्राचीन सभ्यता और संस्कृति वाला देश है जिसने अंग्रेजी शासन से आजाद होने के बाद अपने लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार किया. लेकिन भारतीय समाज जातियों में बंटा हुआ है जो ऊंच-नीच के सिद्धांत पर आधारित सामाजिक संस्था है और जिसके वैचारिक ढांचे को वर्णव्यवस्था कहा जाता है. वर्ण का अर्थ है रंग यानी जातियों का मूलाधार रंगभेद है. आम धारणा है कि ऊंची जातियों में उत्पन्न लोग गोरे या साफ गेंहुवा रंग के होते हैं और निचली जाति के लोग काले.

अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों में शायद एक भी ऐसा नहीं होता जो काले रंग की वधू या वर के लिए हो. पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में ‘फेयर एंड लवली' नाम की एक क्रीम की बिक्री असाधारण रूप से बढ़ी है क्योंकि यह क्रीम काले या सांवले रंग वाले व्यक्ति को गोरा बना देने का दावा करती है. अमूमन यह देखा जाता है कि जो लड़कियां गोरी नहीं हैं, वे अपने सौन्दर्य को लेकर हीन भावना की शिकार रहती हैं.

राजधानी दिल्ली में अफ्रीकी देशों के छात्र काफी बड़ी संख्या में पढ़ने आते हैं. अक्सर ऑटोरिक्शा या टैक्सी वाले उन्हें “कालू” कहकर बुलाते हैं और हिकारत के साथ देखते हैं. उनके काले रंग के अलावा उनके अफ्रीकी नाक-नक्श भी इस प्रकार के अपमानजनक बर्ताव के पीछे एक बड़ा कारण होते हैं. आदिवासियों का रंग और नाक-नक्श भी दूसरों से अलग होता है इसलिए उन्हें भी लगभग वैसे ही भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता है जैसा अफ्रीकी छात्रों को. दलित भी इसी श्रेणी में आते हैं.

संविधान ने सभी को बराबरी का हक दिया है लेकिन कानून इस समस्या से निपटने में मददगार साबित नहीं हुआ. सरकार यह जरूर कर सकती है कि प्रशासनिक और पुलिस की मशीनरी को इस समस्या के प्रति जागरूक बनाए और उनमें यह चेतना पैदा करे कि वे किसी भी ऐसी घटना को बेहद गंभीरता से लें और तुरंत सख्त कार्रवाई करें. लेकिन चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, सभी केवल जबानी जमाखर्च करके अपना कर्तव्य पूरा हुआ समझती हैं.

बेंगलुरू से आई खबरों का कहना है कि जब तंजानियाई छात्रा और उसके साथियों की कार रोककर उन्हें पीटा जा रहा था और उनके कपड़े फाड़े जा रहे थे, उस समय घटनास्थल पर पुलिस के सिपाही भी मौजूद थे, लेकिन वे मूक दर्शक बने रहे. उस छात्रा की रिपोर्ट भी पुलिस ने काफी आनाकानी के बाद दर्ज की. इस घटना के पीछे एक अन्य कारण यह भी है कि इन दिनों सड़क पर वाहन चलाने वाले इतना तनावग्रस्त रहते हैं कि जरा जरा सी बात पर मारपीट करने लगते हैं. वाहन से किसी दूसरे वाहन के जरा सा टकराने पर रिवॉल्वर निकल आना और हत्या हो जाना आम बात हो गई है. लेकिन इस रुझान पर अंकुश लगाने के लिए किसी भी ओर से कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है.

पिछले काफी समय से भारत में समाज सुधार आंदोलन भी लगभग समाप्त हो गए हैं. दलित राजनीति में उभार आया है लेकिन उसका ध्यान भी केवल राजनीतिक शक्ति-संचय पर ही केन्द्रित है. जाति और रंगभेद विरोधी चेतना के प्रचार-प्रसार में किसी भी संगठन की कोई खास दिलचस्पी नजर नहीं आती. ऐसे में यदि विश्व में भारत की एक ऐसे देश के रूप में छवि बनती है जहां विदेशी छात्र-छात्राओं के साथ रंगभेद की नीति अपनाई जा रही है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार