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आईएस के खिलाफ एकजुटता जरूरी

५ मार्च २०१५

आईएस आतंकियों को हराने के इरादे से इराकी सेना तिकरित की सीमा पर खड़ी है. डीडब्ल्यू के केर्सटेन क्निप बताते हैं कि राजनैतिक समाधान निकाले बिना केवल सैनिक शक्ति से यह जंग नहीं जीती जा सकती.

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Irak Tikrit Offensive gegen IS in Vorbereitung
तस्वीर: Reuters/T. Al-Sudani

इराक के तिकरित में इस्लामिक स्टेट के खिलाफ जंग छिड़ी हुई है. लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि इस जंग की जीत और हार का सही फैसला असल में बगदाद में होगा. राजधानी में ही देश का सही राजनैतिक भविष्य तय हो सकता है. केवल इराक ही निर्णय ले सकता है कि आखिर वह क्या बनना चाहता है.

क्या वह तीन गुटों में बंटा हुआ एक ऐसा क्षेत्र बनना चाहता है, जिसमें बॉर्डर के अलावा कोई और साझा चीज ना हो. या फिर, एक ऐसा राष्ट्र जहां तीनों गुट- शिया, सुन्नी और कुर्द- खुद एक राष्ट्र की तरह एक दूसरे को सम्मान देते हुए साथ रहने का फैसला कर चुके हों. या फिर वे उस विकल्प को चुनें जिसमें वे अपने धार्मिक संप्रदायवाद और जातीयता की सीमाओं के भीतर ही एक अनिश्चित और संभवत: अंधकारमय भविष्य के साथ जीते रहें. बगदाद की संसद ही इस बात का फैसला ले सकती है कि क्या इराकी धार्मिक सीमाओं से ऊपर उठने वाला एक समाज चाहते हैं.

अब आगे क्या

बगदाद के संकेतों का गहरा असर तिकरित में लड़े रहे सिपाहियों के आचार-विचार पर पड़ेगा. शहर के द्वार से पहले शिया मिलिशिया और वॉलंटियर सुन्नी सैनिकों का एक गठबंधन है. "आईएस" नामके अपने साझा दुश्मन से लड़ने की इच्छा ही इनके साथ आने का कारण बनी है. इसमें हफ्ते या महीने लग सकते हैं लेकिन यह सवाल शायद तब भी बना रहेगा कि जंग के बाद क्या होगा. मान लेते हैं कि आंतकियों को हराने में कामयाबी मिल गई, उसके बाद सुन्नी, शिया और उत्तर के कुर्दों के बीच कैसा संबंध रहेगा?

इतने कम समय में आईएस ने उन सुन्नी समुदायों को अपने खिलाफ कर लिया है, जो एक समय पर उनकी जीत का स्वागत कर रहे थे. सच तो यह है कि लोगों को यह अच्छा नहीं लग सकता कि उनके पड़ोसियों को फांसी पर चढ़ाया जाए, छतों से नीचे फेंका जाए या उन पर बिना बात कोड़े बरसाए जाएं.

Deutsche Welle Kersten Knipp
डॉयचे वेले के केर्सटेन क्निपतस्वीर: DW/P. Henriksen

जंग का नतीजा

आतंकवादियों और हत्यारों से लड़ने की भावना रखना एक बात है और अपने एक शत्रु से लड़ने के लिए किसी दूसरे शत्रु के साथ हाथ मिलाना बिल्कुल दूसरी बात. सुन्नी और शियायों के साथ मिलकर आईएस के खिलाफ लड़ने के पीछे भी बुरे इरादे हो सकते हैं. कई शियायों का सपना है कि सद्दाम हुसैन के खात्मे के बाद फिर से अपनी ताकत का लोहा मनवा सकें. वहीं सुन्नी चाहते हैं कि आईएस के कब्जे वाले इलाकों पर वह अपना दावा ठोक सकें और भविष्य में अपने लिए राजनैतिक व्यवस्थाओं में इसका इस्तेमाल करें.

बीते कुछ महीनों में जब आईएस के खिलाफ लड़ने के नाम पर शियाओं ने सुन्नियों को उन्हीं के घरों से बाहर कर उन पर कब्जा करना शुरू कर दिया, तभी सुन्नी समुदाय ने समझ लिया था कि उनके साथ मिलकर एक संयुक्त मोर्चा बनाना कितना जरूरी हो गया है.

सद्दाम हुसैन के शासन के आखिरी दशक में आते आते दोनों गुटों के बीच सांप्रदायिक तनाव बहुत बढ़ चुका था. उन्हें शियाओं के बड़ी संख्या में मारे जाने से भी परेशानी नहीं थी जो लाखों में बताई जाती है. दूसरी ओर, सुन्नी समुदाय हाल के सालों में शिया राष्ट्रपति नूरी अल मलिकी का शासन देख रहा है. कई मायनों में वह लोगों को बांटने वाले सद्दाम के उसूलों पर ही चलते दिख रहे हैं लेकिन इस बार दिशा विपरीत है. उन्होंने शियाओं के लिए और सुन्नी समुदाय के खिलाफ माहौल बना दिया है. इसके अलावा सुन्नी समुदाय को चिंता ईरान की आधिपत्य जमाने की मंशा से भी है, जो तिकरित में केवल मानवीय कारणों से ही सैनिक सलाहकार नहीं भेज रहा.

एक तानाशाह और एक प्रतिशोधवादी

इराक का दुर्भाग्य है कि पहले वहां एक तानाशाह का राज रहा और अब उसकी जगह एक ऐसी सत्ता है जो प्रतिशोध की भावना से ओत प्रोत है. अगर लड़ाके तिकरित में आईएस को हराने में कामयाब हो जाते हैं तो भी उनके सामने देश को राजनीति को गर्त में ले जाने वाली इन दोनों शासकों की विरासत से निपटने की चुनौती होगी. इसमें असफल रहने पर वे यह तो कह सकेंगे कि कम से कम उन्होंने आईएस को तो गिरा दिया. लेकिन ज्यादा देर नहीं लगेगी जब हथियारबंद आंतकियों की एक नई पीढ़ी सामने खड़ी हो. आईएस एक ऐसा दानव है जिसे सही मायनों में बगदाद की संसद में ही मारा जा सकता है.

केर्सटेन क्निप/आरआर