1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

महाराष्ट्र में फेंटे जा रहे राजनीति के पत्ते

विश्वरत्न श्रीवास्तव१२ नवम्बर २०१४

महाराष्ट्र में चुनाव से पहले हिंदुवादी पार्टियों का 25 साल पुराना गठबंधन तो टूटा ही चुनाव के बाद दोनों की दूरियां और बढ़ गई है. बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस की सरकार का विधानसभा में शिवसेना ने विरोध किया.

https://p.dw.com/p/1Dlm2
तस्वीर: P. Paranjpe/AFP/Getty Images

इन दिनों भाजपा अपने सबसे अच्छे समय से गुजर रही है. महाराष्ट्र में शिवसेना से अलग होकर चुनाव लड़ भाजपा और मजबूत हुई है. मोदी लहर के बावजूद 288 सदस्यीय विधानसभा में पार्टी बहुमत के 145 के जादुई आकड़े तक नहीं पहुंच पाई. इस नतीजे ने पुराने सहयोगियों को फिर से मिलने का मौका दिया लेकिन दोनों ही पार्टियों ने अपनी "जिद की लक्ष्मण रेखा" को नाक का सवाल बना लिया. दरअसल शिवसेना रिश्तों के अतीत में जीना चाहती है जबकि भाजपा रिश्तों के भविष्य की ओर देख रही है. यानी हार के बावजूद शिवसेना बड़े भाई से थोड़ा कम की भूमिका चाहती है तो भाजपा मजबूर-लाचार भाई के रूप में शिवसेना को अपने साथ रखना चाहती है. इसी के चलते दोनों ही दलों के बीच समझौता नहीं हो पाया.

मातोश्री से बगावत

महाराष्ट्र में पहली बार बनी भाजपा की सरकार को अगले कुछ महीनों तक कोई खतरा नहीं है. लेकिन राज्य की राजनीति में उथल पुथल की सम्भावना जरूर है. भाजपा स्वयं को मजबूत करने के लिए विरोधी दल के कुछ विधायकों को अपने पक्ष में तोड़ सकती है. कांग्रेस और एनसीपी के विधायकों को तोड़ पाना शायद भाजपा के लिए आसान ना हो पर शिवसेना में विभाजन हो सकता है और उसके कुछ विधायक भाजपा के समर्थन में आ सकते हैं.

शिवसेना के बहुत से नेता हिंदुवादी ताकतों को इकट्ठा रखने के पक्षधर रहे हैं और अब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पार्टी नेतृत्व के मुखर विरोध से किनारा कर सकते हैं. वैसे भी भाजपा को शिवसेना नेतृत्व के कोपभाजन बने नेता सुरेश प्रभु को पार्टी सदस्यता देने और रेल मंत्री बनाने में कोई दिक्कत नहीं हुई. शिवसेना विधायकों में ऐसे कई सुरेश प्रभु हो सकते हैं, जो मंत्री पद के लिए "मातोश्री" से बगावत कर दें.

Indien Maharashtra Ministerpräsident Devendra Fadnavis mit Narendra Modi
पीएम मोदी के साथ फडणवीसतस्वीर: P. Paranjpe/AFP/Getty Images

एनसीपी की कीमत

शरद पवार की एनसीपी की केंद्र में कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार में शामिल रही है. एनसीपी ने महाराष्ट्र विधान सभाओं के चुनाव के नतीजे सामने आने के बाद ही भाजपा सरकार को बाहर से समर्थन देने की घोषणा कर रखी थी. सरकार को बचाने के लिए एनसीपी ने ध्वनिमत से पहले सदन से वॉकआउट किया. एनसीपी के वॉकआउट करने से सरकार ने आसानी से विश्वास मत हासिल कर लिया.

एनसीपी अपनी इस दरियादिली के बदले सरकार से क्या कीमत वसूलेगी, इसका अंदाजा लगभग सभी को है. एनसीपी नेताओं पर जो भ्रष्टाचार के मामले है उस पर फडणवीस सरकार थोड़ी कम सख्त नजर आए तो इसे शरद पवार की कीमत ही समझना चाहिए. इसके अलावा शरद पवार कोई और दांव भी खेल सकते हैं, जिससे राजनीतिक पंडित भी चकरा जाएं.

साथ सकते हैं उद्धव और राज

वर्षों से सदन में एक-दूसरे का सहयोग करती आयीं भाजपा और शिवसेना अब एक दूसरे के आमने सामने हैं. शिवसेना आक्रामक विपक्ष की भूमिका निभाने की पूरी कोशिश करेगी. सदन के बाहर अब शिवसेना को अपनी जड़ों को मजबूत करना होगा. शिवसेना का एक बड़ा वर्ग विपक्ष में रहकर अपनी ताकत को बढ़ाने का समर्थक है. भाजपा-एनसीपी के "नापाक" गठजोड़ को जनता के बीच बेनकाब करना अब पार्टी की रणनीति होगी.

भाजपा ने जिस प्रकार दिल्ली में आम आदमी पार्टी को कांग्रेस से समर्थन लेने के लिए जनता के बीच कठघरे में खड़ा कर दिया था, कुछ इसी तरह की रणनीति शिवसेना ने भी बनाई है. इस प्रयास में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने चचेरे भाई और मनसे नेता राज ठाकरे से दोस्ती बढ़ा सकते हैं. विधानसभा चुनाव में राज ठाकरे की पार्टी का प्रदर्शन बहुत ही बुरा था. दोनों को एक दूसरे की जरूरत इस समय सबसे ज्यादा है.