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माजुली-नदी में समाती एक धरोहर

४ अगस्त २०१०

असम के जोरहाट जिले में ब्रह्मपुत्र के बीच स्थित दुनिया का यह सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है. सत्ता में आने वाली राजनीतिक पार्टियों ने समृध्द सांस्कृतिक विरासत वाले इस द्वीप को बचाने की पहल नहीं की.

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तस्वीर: AP

अपनी विशेषताओं के चलते दुनिया भर में मशहूर माजुली का अस्तित्व अब साल दर साल आने वाली बाढ़ और भूमिकटाव के चलते खतरे में पड़ गया है. तब इसका क्षेत्रफल 1278 वर्ग किलोमीटर था. लेकिन साल दर साल आने वाली बाढ़ व भूमिकटाव के चलते अब यह घटकर 557 वर्ग किलोमीटर रह गया है. द्वीप के 23 गांवों में कोई डेढ़ लाख लोग रहते हैं.

गंभीर स्थिति

माजुली कालेज में प्रोफेसर राजेश फूकन कहते हैं कि इस साल हालत गंभीर है. माजुली को बाढ़ और भूमिकटाव से बचाने के लिए दो एजंसियां हैं. लेकिन किसी ने भी अब तक इस दिशा में कोई पहल नहीं की है. यही वजह है कि माजुली का काफी हिस्सा नदी में समा गया है.

विश्व धरोहरों की सूची में इसे शामिल कराने के तमाम प्रयास भी अब तक बेनतीजा रहे हैं. यूनेस्को की बैठकों के दौरान राज्य सरकार ने या तो ठीक से माजुली की पैरवी नहीं की या फिर आधी-अधूरी जानकारी मुहैया कराई. इसी के चलते यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर का दर्जा देने का अनुरोध ठुकरा दिया है. राज्य सरकार ने इस द्वीप को बचाने की पहल के तहत कुछ साल पहले माजुली कल्चरल लैंडस्केप मैनेजमेंट अथारिटी का गठन किया था. बावजूद इसके इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ है.

मुश्किल जीवन

इस द्वीप पर रहने वाले डेढ़ लाख लोग तलवार की धार पर जीवन काट रहे हैं. हर साल बरसात के मौसम में वहां कमर तक पानी भर जाता है. एक गांव से दूसरे गांव तक जाने का रास्ता टूट जाता है और टेलीफोन काम नहीं करता. इस साल भी यही स्थिति है. माजुली के सबडिवीजनल आफिसर दीपक हैंडिक बताते हैं कि यह द्वीप नदी के बीचोबीच बसा है. बाढ़ और भूमिकाटव की वजह से इसका कुछ हिस्सा हर साल नदी के साथ बह जाता है. अब तो यह घट कर आधा रह गया है. हम बाढ़ में फंसे लोगों तक राहत पहुंचाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं.

बरसात के चार महीनों के दौरान बाहरी दुनिया से इस द्वीप का संपर्क कट जाता है और लोगों का जीवन दूभर हो जाता है. इस द्वीप की अस्सी फीसदी आबादी रोजी-रोटी के लिए खेती पर निर्भर है. माजुली के मानस बरूआ कहते हैं कि माजुली के लोग अपना पेट पालने के लिए खेती पर निर्भर हैं. लेकिन हमारे ज्यादातर खेत पानी में डूब गए हैं. बाढ़ का पानी भर जाने से संचार व परिवहन व्यवस्था भी ठप है. पता नहीं हम पूरे साल अपने परिवार का पेट कैसे पालेंगे. मोनी सैकिया भी यही रोना रोते हैं. वे कहते हैं कि बाढ़ हर साल आती है. लेकिन हमें कोई सहायता नहीं मिलती. बाद में सब लोग चुप्पी साध लेते हैं.

पर्यटन के लिए मशहूर

यह द्वीप अपने वैष्णव सत्रों के अलावा रास उत्सव, टेराकोटा और नदी पर्यटन के लिए मशहूर है. मिसिंग,देउरी, सोनोवाल, कोच, कलिता, नाथ, अहोम,नेराली और अन्य जातियों की मिली-जुली आबादी वाले माजुली को मिनी असम और सत्रों की धरती भी कहा जाता है. असम में फैले लगभग 600 सत्रों में 65 माजुली में ही थे. राज्य में वैष्णव पूजास्थलों को सत्र कहा जाता है.

अपनी धनी सांस्कृतिक विरासत और विशेषताओं के बावजूद प्रशासन की उदासीनता से माजुली का अस्तित्व ही खतरे में है. द्वीप की सड़कें खस्ताहाल हैं. बरसात के दिनों की बात छोड़ भी दें, तो साल के बाकी महीनों के दौरान भी द्वीप के कई इलाकों में जाना लगभग असंभव है. बरसात के चार महीनों के दौरान तो इस द्वीप का संपर्क देश के बाकी हिस्सों के साथ पूरी तरह कट जाता है. राज्य में एक के बाद एक आने वाली सरकारों ने इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया. नतीजतन जिस माजुली को दुनिया के सबसे आकर्षक पर्यटन केंद्र के तौर पर विकसित किया जा सकता था वह आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है. यहां पर्यटन का आधारभूत ढांचा तैयार करने में किसी ने कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई. एक स्कूल शिक्षक संजीत बोरा कहते हैं कि हमें बाढ़ आने पर समुचित राहत नहीं मिलती. हम लोग खेती पर ही निर्भर हैं. इस द्वीप पर समुचित सुविधाओं का भारी अभाव है. अगर सरकार ने समय रहते व्यवस्था की होती तो इस द्वीप को नदी में डूबने से बचाया जा सकता था.

वेनिस से भी ज्यादा

माजुली के बारे में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि यहां जितनी नावें हैं उतनी शायद इटली के वेनिस में भी नहीं हैं. द्वीप का कोई भी घर ऐसा नहीं है जहां नाव नहीं हो. यहां नावें लोगों के जीवन का अभिन्न अंग बन गई हैं. लोग कार, टेलीविजन और आधुनिक सुख-सुविधा की दूसरी चीजों के बिना तो रह सकते हैं लेकिन नावों के बिना नहीं. हर साल आने वाली बाढ़ पूरे द्वीप को डुबो देती है. इस दौरान अमीर-गरीब और जाति का भेद खत्म हो जाता है. महीनों तक नावें ही लोगों का घर बन जाती हैं. उस समय माजुली में आवाजाही का एकमात्र साधन भी लकड़ी की बनी यह नौकाएं ही होती हैं. अगर इस द्वीप को बचाने के लिए जल्दी ही ठोस कदम नहीं उठाए गए तो वह दिन दूर नहीं है जब यह धरोहर पूरी तरह ब्रह्मपुत्र में समा जाएगी.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः आभा एम