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मामला राजनीतिक भ्रष्टाचार का

८ जून २०१५

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के बीच वोट के बदले नोट मामले में चल रहा विवाद अब गंभीर रूप लेता जा रहा है. कुलदीप कुमार का कहना है कि असल मामला राजनीतिक भ्रष्टाचार का है और सारी खींचतान में उसे दबना नहीं चाहिए.

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तस्वीर: UNI

तेलंगाना का भ्रष्टाचार विरोधी ब्यूरो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू को पूछताछ के लिए तलब करने की तैयारी में है तो आंध्र प्रदेश में अनेक स्थानों पर सत्तारूढ़ तेलुगू देशम पार्टी के मंत्रियों और विधायकों ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के खिलाफ रपट लिखानी शुरू कर दी है. तेलंगाना के गृहमंत्री एन. नरसिंह रेड्डी का कहना है कि फोन पर नायडू द्वारा एक मनोनीत विधायक को विधान परिषद के चुनाव में वोट के बदले धन देने की पेशकश की गई और इसकी रिकॉर्डिंग पुलिस के पास है. उधर तेलुगू देशम पार्टी चंद्रशेखर राव पर नायडू के फोन को गैरकानूनी ढंग से टैप कराने का आरोप लगा रही है.

स्पष्ट है कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के बीच की यह राजनीतिक लड़ाई अभी काफी लंबी खिंचेगी. इसमें किसका पक्ष सही है और किसका गलत, यह कहना मुश्किल है क्योंकि बहुत संभव है कि दोनों ही पक्षों ने गल्तियां की हों. लेकिन असल मुद्दा राजनीतिक भ्रष्टाचार का है और इस समूचे घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. लोकतंत्र में वोट का अधिकार बुनियादी अधिकार है और इसके इस्तेमाल के द्वारा ही मतदाता अपनी राय प्रकट करते हैं. वोट देने की यह प्रक्रिया पूरी तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष होनी चाहिए. मतदाता पर केवल उसकी अंतश्चेतना का ही दबाव होना चाहिए. अन्य किसी भी प्रकार का दबाव इस प्रक्रिया की शुचिता को खंडित कर देता है. शुरू से ही भारत में होने वाले चुनावों में बूथ पर जबरन कब्जा करने, मतदाताओं को डराने-धमकाने और तरह-तरह के प्रलोभन देकर फुसलाने की घटनाएं होती रही हैं और निर्वाचन आयोग का काम उन पर अंकुश लगाना रहा है. पिछले दशकों में निर्वाचन आयोग अपनी ज़िम्मेदारी को निभाने में काफी हद तक सफल भी रहा है.

लेकिन यदि सांसद और विधायक भी किसी डर या प्रलोभन के दबाब में वोट डालें, तो निर्वाचन आयोग भी क्या कर सकता है? तब तो भ्रष्टाचार विरोधी जांच एजेंसियां ही कोई भूमिका निभा सकती हैं. लेकिन अभी तक सीबीआई भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त नहीं है, इसलिए लोगों का इन जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर भी पूरा भरोसा नहीं रह गया है. पिछले दिनों गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगों और फर्जी मुठभेड़ों के अभियुक्त पुलिस अधिकारियों को जिस तरह से एक-एक करके छोड़ा गया है और सेवा में बहाल किया गया है, उससे यह भरोसा और भी कम हुआ है. वही सीबीआई जो पहले उनके खिलाफ पुख्ता सुबूत होने का दावा कर रही थी, अब कह रही है कि पर्याप्त सुबूत नहीं हैं.

जब पी वी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, तब भी उनकी सरकार पर आरोप लगे थे कि खुद को सत्ता में बनाए रखने के लिए उन्होंने विपक्षी सांसदों को रिश्वत दी थी. इसके बाद बीजेपी के सांसदों ने बाकायदा संसद में नोटों से भरे सूटकेस ले जाकर दावा किया था कि मनमोहन सिंह सरकार को बचाने के लिए उन्हें रिश्वत में कई करोड़ रुपए दिये गए. इस कांड के कारण कुछ सांसदों की सदस्यता भी चली गई थी. यहां इन घटनाओं को याद करने का अर्थ सिर्फ यह दर्शाना है कि यह समस्या काफी समय से चली आ रही है. बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती पर ही नहीं, अन्य पार्टियों के नेताओं पर भी इस प्रकार के आरोप लगे हैं कि चुनाव में उम्मीदवारों को टिकट देने के बदले उनसे भारी मात्रा में धन लिया गया. विधान परिषद का चुनाव हो या राज्य सभा का, हर बार वोट के बदले नोट के आरोप लगते हैं.

आंध्र और तेलंगाना के बीच की लड़ाई में गैरकानूनी ढंग से फोन टैप करने का सवाल भी जुड़ गया है. उन्नत तकनीकी के इस युग में यह सिद्ध करना बहुत मुश्किल है कि फोन किसने और कैसे टैप किया क्योंकि इसके बहुत-से तरीके हैं. इस घटनाक्रम के कारण राजनीतिक भ्रष्टाचार का मुद्दा चर्चा के केंद्र में आना चाहिए, लेकिन दोनों पड़ोसी राज्यों की आपसी लड़ाई में लगता है यह मुद्दा दब जाएगा और तेलुगू देशम पार्टी तथा तेलंगाना राष्ट्र समिति के बीच राजनीतिक खींचतान ही प्रमुखता के साथ उभर कर आएगी.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार