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मीडिया पर नियंत्रण का सेल्फी-जर्नलिज्म दौर

शिवप्रसाद जोशी
५ जून २०१७

प्रमुख भारतीय चैनल एनडीटीवी के प्रोमोटरों के घरों और दफ्तरों पर सीबीआई के छापों को प्रमुख पत्रकारों ने प्रेस की आजादी पर हमला बताया है. अधिकारियों का कहना है कि छापे एक बैंक को नुकसान पहुंचाने की जांच से जुड़े हैं.

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Indien NDTV Nachrichtenkanal
तस्वीर: Getty Images/AFP/C. Khanna

एनडीटीवी ही था जिस पर पिछले साल एक दिन का प्रतिबंध लगाने का फैसला भी किया गया था. उस समय भी भारी विरोध के बाद सरकार को फैसला बदलना पड़ा था. यूं तो चैनल पर आर्थिक घोटाले के आरोप नये नहीं हैं और समय समय पर ये विवाद उछलता ही रहा है लेकिन इस समय एनडीटीवी मालिकों पर छापे को, उसके सरकार विरोधी होने के दंड के रूप में देखा जा रहा है. आरोप ये भी है कि बीजेपी सरकार अपने आलोचकों के प्रति असहिष्णुता दिखा रही है.

ये सही है कि मीडिया पर नियंत्रण को लेकर प्रधानमंत्री मोदी की वर्तमान सरकार कुछ ज्यादा ही मुस्तैद नजर आती है. लेकिन प्रेस से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले भारतीय नेताओं में मोदी पहले नहीं है. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी प्रेस को लेकर कभी सहज नहीं रही थीं. मीडिया पर नकेल कसने की उनके दौर में इमरजेंसी के अलावा भी कई मिसालें हैं. लेकिन इधर मोदी सरकार भी कई कदम आगे जाकर मीडिया को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करती दिखती है.

समाचार चैनलों और अखबारों से अंदर की खबरें बताती हैं कि मीडिया नियंत्रण के लिए अब दमन से ज्यादा अपने पक्ष में झुका देने की रणनीति ज्यादा अमल में लाई जा रही है. सरकार समर्थित खबरें हावी हैं, आलोचना दरकिनार है. सत्ता के प्रति मीडिया की उदासीनता और दूरी ही उसकी पहचान रही है लेकिन इधर भारत में मीडिया की ये प्रवृत्ति भी मानो बड़े उलटफेर का शिकार हो गई है. मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सत्ता नजदीकी से ग्रस्त है. इसीलिए सेल्फी मोड की पत्रकारिता भी इसे कहा जाने लगा है. मोबाइल मीडिया के दौर में आजाद भारत की ये सबसे बड़ी पत्रकारीय दुर्घटना है. इंडियन एक्सप्रेस अखबार के प्रमुख संपादक और मशहूर उपन्यासकार राजकमल झा ने आज की पत्रकारिता के एक बड़े खतरे से आगाह कराते हुए, पिछले साल रामनाथ गोयनका जर्नलिज़्म अवार्ड समारोह में कहा था, "इस सेल्फी जर्नलिज्म में अगर आपके पास तथ्य नहीं है तो इससे फर्क नहीं पड़ता है. आप फ्रेम में बस एक झंडा रख दीजिए और उसके पीछे छिप जाइये.”

खतरे में साख

मीडिया की साख ही नहीं विश्वसनीयता भी खतरे में है. एनडीटीवी पर कार्रवाई से कुछ रोज पहले, ये एक संयोग ही था कि चैनल पर एक लाइव बहस के दौरान एंकर और बीजेपी प्रवक्ता में तीखी कहासुनी हुई. पैनलिस्टों को रह रहकर टोकने और बोलने के लिए बेकरार बीजेपी नेता से जब रहा नहीं गया तो उन्होंने एनडीटीवी पर एजेंडा चलाने का आरोप मढ़ डाला. इस पर शो की एंकर निधि राजदान उखड़ गईं. ऑनएयर दोनों उलझ गए. निधि ने संबित पात्रा को अपनी बात वापस लेने और माफी मांगने को कहा लेकिन वो नहीं माने तो निधि ने भी कह दिया कि ये उनका शो है और वो शो छोड़ कर जा सकते हैं. इस पर संबित और बिदके.

वैसे इस मामले में थोड़ा खुद को टटोल लेने में कोई हर्ज नहीं. संबित पात्रा राजनैतिक दल के प्रतिनिधि और प्रवक्ता हैं और ऐसी डिबेट में अपने दल का पक्ष रखने के लिए वो कोई भी "हथकंडा” यानी स्ट्रेटजी अपना सकते हैं. व्यवधान डाल सकते हैं, आपको उत्तेजित कर सकते हैं. कुछ भी. एक पत्रकार के तौर पर धैर्य बनाए रखना और एक नेता के संगीन आरोप का बहुत चतुराई, शालीनता और दृढ़ता से जवाब देना ही पत्रकारीय कौशल कहा जाएगा. एंकर का गुस्से में आ जाना, एक पार्टी प्रवक्ता के एजेंडे की सफलता है. हम यही कहेंगे कि ऐसे मौके, पत्रकारीय विवेक की हिफाजत के बहुत नाजुक मौके होते हैं जिनकी आज और सख्त जरूरत है. हालांकि ये भी सच है कि टीआरपी प्रतिस्पर्धा,  प्रदर्शन के दबाव और लोकप्रियतावाद ने टीवी पत्रकारों, खासकर स्टूडियो एंकरों को एक कठिन गली में फंसा दिया है. 

ऑन एयर, भले ही ये तकरार कुछ मिनट चली लेकिन इसने उस खतरे का अहसास करा दिया जो इधर प्रेस की आजादी और पत्रकारीय विवेक को लेकर व्यापक हुआ है. दो महीने पहले ही प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक आया था जिसमें भारत की शोचनीय स्थिति दर्शाई गई है, 180 देशों में उसका 136वां नंबर है. पत्रकारों के लिए हालात मुश्किल हैं. जान के खतरे से ज्यादा पत्रकारीय गरिमा और विवेक से समझौते करने का खतरा बढ़ गया है. कुल मिलाकर असहमति के साहस और सहमति के विवेक को चौतरफा चुनौती मिल रही है. समकालीन भारतीय टीवी में एक नई उग्रता का जन्म हुआ है और पत्रकार, पक्षकार बनकर लड़ते दिखते हैं. अरनब गोस्वामी के विवादास्पद शो, न्यूज ऑवर को कौन भूल सकता है जो एजेंडा जर्नलिज्म का संभवतः सबसे कुख्यात और हिंसक उदाहरण होगा. दूसरी ओर बीजेपी जिस वैचारिक कट्टरपंथ का प्रतिनिधित्व करती है, उसमें नियंत्रण और बाध्यता उसके कुछ चारित्रिक लक्षण हैं. वो अपनी आलोचना नहीं बर्दाश्त करती. केंद्र सरकार अपनी वैचारिक मान्यताओं को ही पुष्ट कर रही है. मीडिया पर नियंत्रण के उसके अपने तरीके हैं. आज कोई भी जागरूक व्यक्ति एक नजर में बता सकता है कि फलां मीडिया सरकार का पिछलग्गू है, फलां उसका आलोचक. ऐसे भी लोग हैं जो ऐसे मीडिया को देश का दुश्मन तक बता देते हैं.

मुश्किल रिश्ते

2002 के गुजरात दंगों के बाद से ही मोदी के मीडिया से रिश्ते सामान्य नहीं रह पाए. वो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे. आज प्रधानमंत्री के रूप में तीन साल पूरे कर लेने के बाद भी उन्होंने कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है. वो सोशल मीडिया, पब्लिक रैलियों, दूरदर्शन या आकाशवाणी के जरिए ही अपना संदेश देते हैं. मीडिया को उन्हीं "एकालापों” में से अपने लिए खबर उठानी पड़ती है. 2016 में उनके इक्कादुक्का इंटरव्यू आए थे जिनमें से एक, उन्हीं अरनब गोस्वामी ने लिया था जिनके उस दौर के हिट कार्यक्रम में टीवी स्क्रीन पर आग बरसती दिखती थी. मोदी से उस इंटरव्यू में अरनब मानो कोने में दुबक गये थे. पत्रकारीय नैतिकता का वो एक संकट भरा कोना था. 

बेशक मीडिया पर नियंत्रण के ये मोदी के तरीके हैं. और आए दिन की मिसालें भी. वैसे 2014 में प्रख्यात पत्रकार विनोद मेहता ने प्रधानमंत्री मोदी की मीडिया असहजता के बारे में कहा था कि "उनके लिए नो न्यूज ही गुड न्यूज है जबकि एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें अपने मौजूदा इंफॉर्मेशन ब्लैकआउट रवैये को हटा देना चाहिए. इससे उनका ही नहीं देश का भी फायदा होगा.”