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"मुझे जेल में ही रहने दो"

१७ अगस्त २०१६

पुरानी कहावत है कि न्याय का चक्का बहुत धीरे-धीरे घूमता है. लेकिन भारत में यह इतनी धीमी रफ्तार से घूमता है कि अक्सर यह पता ही नहीं चलता कि वह घूम भी रहा है या नहीं.

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तस्वीर: Fotolia/rudall30

मंगलवार को दिल्ली की एक विशेष अदालत में एक अजीबोगरीब वाकया पेश आया जब पूर्व कोयला सचिव एचसी गुप्ता ने अदालत के सामने अपनी जमानत रद्द किए जाने के लिए आवेदन किया और कहा कि चूंकि उनके पास मुकदमा लड़ने और वकील की फीस देने के लिए पर्याप्त धन नहीं है, इसलिए वे जेल में रहकर ही मुकदमे का सामना करना चाहते हैं. उन्होंने किसी गवाह से जिरह करने से भी इंकार कर दिया. उनके इस असामान्य आचरण के पीछे जो भी कारण हों, इससे एक ऐसी समस्या फिर से चर्चा के केंद्र में आ गई है जिससे देश के आम नागरिक को हर दिन दो-चार होना पड़ता है.

पुरानी कहावत है कि न्याय का चक्का बहुत धीरे-धीरे घूमता है. लेकिन भारत में यह इतनी धीमी रफ्तार से घूमता है कि अक्सर यह पता ही नहीं चलता कि वह घूम भी रहा है या नहीं. मामूली से मुकदमे भी तीन-चार दशक तक खिंच जाते हैं. इसके पीछे अनेक कारण हैं जिनमें से एक प्रमुख कारण पर्याप्त संख्या में जजों का न होना भी है. इस समय निचली अदालतों में जजों के लगभग साढ़े चार हजार पद खाली पड़े हैं. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी 40 प्रतिशत तक पद खाली हैं.

स्थिति यहां तक खराब हो चली है कि मई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में बोलते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टीएस ठाकुर इस मुद्दे पर इतने भावुक हो गए कि उनका गला रूंध गया और कुछ देर तक वे बोल भी नहीं पाये. दो दिन पहले स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से जो भाषण दिया, उसकी चीफ जस्टिस ठाकुर ने यह कह कर आलोचना कर डाली कि इसमें जजों की नियुक्ति के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा गया. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस प्रधानमंत्री के भाषण की आलोचना करें, यह स्वयं में एक अभूतपूर्व और असाधारण बात है. लेकिन उन्होंने आलोचना करना जरूरी समझा, इसी से पता चलता है कि समस्या कितनी गंभीर है.

खुद सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट भी इस मामले में बेदाग हों, ऐसा नहीं है. नियम यह है कि कोई पद रिक्त होने के छह माह पहले से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट उसे भरने की प्रक्रिया शुरू कर देंगे. यह प्रक्रिया काफी जटिल और लंबी होती है और अक्सर इसके पूरा होने में छह माह से अधिक समय ही लगता है. लेकिन अधिकांशतः यही देखा जाता है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट छह माह की समय सीमा का पालन नहीं करते और प्रक्रिया को बहुत देर में शुरू करते हैं. उनके स्तर पर प्रक्रिया पूरी होने के बाद सरकार के स्तर पर इसमें देरी होती है और पद रिक्त पड़े रहते हैं. जब अदालत में मुकदमा सुनने के लिए जज ही नहीं होंगे, तो उनका निपटारा कैसे होगा.

यह बात शायद अधिक लोग न जानते हों कि अदालतों को सुविधाएं और जज उपलब्ध कराने के प्रति उदासीनता प्रदर्शित करने वाली सरकार ही देश की सबसे बड़ी मुकदमेबाज है. सरकारी विभागों में यह प्रवृत्ति बहुत फल-फूल चुकी है कि जो भी फैसला उनके हक में न आए, उसके खिलाफ ऊंची अदालत में अपील दायर कर दी जाए. नतीजतन अदालतों के सामने करोड़ों मामले बिना सुनवाई के पड़े हुए हैं. कई बार दोषी या कमजोर केस वाले मुवक्किल को उसके विपरीत फैसले की मार से बचाने के लिए वकील केस को टलवाते रहते हैं और तारीख पर तारीख लेते रहते हैं. मुकदमा लड़ने वाला व्यक्ति कई बार थक-हार कर हथियार डालने पर मजबूर हो जाता है. वकीलों की फीस चढ़ती रहती है और मुकदमे के निपटने की कोई सूरत नजर नहीं आती.

जाहिर है कि पूर्व कोयला सचिव एचसी गुप्ता की हताशा के पीछे ये सभी कारण हैं. बहुत संभव है कि वे एक ईमानदार अफसर रहे हों और उनकी ईमानदारी ही उनकी दुश्मन बन गई हो और वे कई आरोपों की गिरफ्त में आ गए हों. नौकरशाही में अक्सर ऐसे मामले सामने आते रहते हैं जब ईमानदार अफसरों के दो-दो तीन-तीन महीने में तबादले कर दिये जाते हैं. अभी हाल में ही कर्नाटक में एक महिला पुलिस अधिकारी ने राजनीतिज्ञों के दबाव और दुर्व्यवहार से तंग आकर नौकरी से ही इस्तीफा दे दिया. अक्सर बहुत मजबूरी में ही लोग अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है कि न्याय की गुहार लगाने वाला व्यक्ति अपने जीवनकाल में न्याय नहीं ले पाता और उसके मरने के बाद भी मुकदमा चलता रहता है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार