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मैदान में उतरे खाली पैर

O Singh१२ अक्टूबर २०१०

हां, गांधी के बारे में पता है, टैगोर का नाम सुना है, लेकिन भारत से फुटबॉल खिलाड़ी? - हैम्बर्ग के खिलाड़ियों ने सोचा था. क्या वे पगड़ी पहनकर खेलते हैं? वे पूछ रहे थे. बात 1952 की है.

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तस्वीर: AP

1952 में भारत की राष्ट्रीय फुटबॉल टीम हैम्बर्ग में खेलने आई. हैम्बर्ग के क्लब एचएसवी के खिलाड़ियों को उस जमाने में भारत के बारे में इतना ही पता था कि वह परीकथाओं का देश है. यह भी पता चला था कि हेलसिंकी में उसी साल हुए ओलंपिक खेलो में वे आए थे और युगोस्लाविया के खिलाफ 1-10 से हार गए थे. फिर गंभीर चेहरे के साथ उनके कोच गेऑर्ग क्नोएफले ने उन्हें बताया कि भारतीय राष्ट्रीय टीम के कुछ एक खिलाड़ी नंगे पैर खेलेंगे.

भारतीय टीम के किसी खिलाड़ी के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता था. उस जमाने में गूगल तो था नहीं, अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में काफी खोज के बाद एक खिलाड़ी के बारे में पता चला, नाम था अहमद खान. कहा गया था कि वह गेंद का जादूगर है. लेकिन फुटबॉल में गेंद का जादूगर? वहां का राष्ट्रीय खेल तो हॉकी है, जिसमें वे हमेशा सोने का पदक जीतते हैं. सुना है कि वे क्रिकेट नाम को कोई खेल खेलते हैं. खैर, देखा जाएगा.

हैम्बर्ग के बाहरी इलाके में बिलटाल स्टेडियम में 15 हजार दर्शक आ चुके थे. कहना पड़ेगा कि एक अच्छी तादाद, आम तौर पर उस स्टेडियम में तीन हजार से अधिक दर्शक नहीं आते थे. अनजाने भारत के बारे में लोगों की दिलचस्पी थी. हैम्बर्ग के खिलाड़ी अपने दर्शकों को निराश नहीं करना चाहते थे. खेल किसी के साथ हो, कायदे से गोल करने पड़ेंगे - उनका कहना था.

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तस्वीर: DW

एचएसवी के उस वक्त के खिलाड़ी योखेन फ्रित्ज माइनके कहते हैं कि भारत के खिलाड़ियों को उन्होंने हल्के ढंग से नहीं लिया था. ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने देखा था कि कितनी खूबसूरती के साथ वे ड्रिबलिंग कर सकते हैं. लेकिन एचएसवी जर्मनी का एक नामी क्लब था, वे मानकर चल रहे थे कि नतीजा अच्छा खासा रहेगा.

और जब तक उन्हें बात कुछ समझ में आती, भारतीय टीम 3-1 से आगे हो चुकी थी. इस नतीजे के साथ हाफटाइम में वे मैदान से बाहर गए. लौटने के बाद वाल्टर शेमेल के गोल से नतीजा हुआ 2-3, फिर हैर्बर्ट वोइतकोवियाक ने लगातार दो गोल दागे, और खेल खत्म होते होते वैर्नर हार्डेन के गोल से एचएसवी को 5-3 से जीत हासिल हुई.

माइनके को अब भी यह याद है कि खेल के बाद जल्दी जल्दी घर पहुंचना था, वे अपने पिता के पेट्रोल पंप में काम करते थे. हां, एक दूसरा जमाना था. जर्मनी के फुटबॉल खिलाड़ी करोड़पति नहीं होते थे, पेट्रोल पंप में काम करते थे. और भारत के खिलाड़ी बिना बूट पहने फुटबॉल खेलते थे.

रिपोर्ट उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन: ओं सिंह

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