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मोदी सरकार का पहला बड़ा स्कैंडल

१५ जून २०१५

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के कार्यकाल का पहला बड़ा स्कैंडल एकाएक फूट पड़ा है और उसने एक बार फिर राजनीति में नैतिकता के सवाल को बहस के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है.

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Lalit Modi
तस्वीर: AP

ब्रिटिश अखबार ‘द संडे टाइम्स' में यह खबर छपी कि भारतीय मूल के वरिष्ठ सांसद कीथ वाज ने आईपीएल घोटाले के दागी ललित मोदी को पिछले साल जून में अपनी पत्नी के कैंसर का इलाज ने के लिए पुर्तगाल जाने के लिए आवश्यक यात्रा दस्तावेज दिये जाने के लिए ब्रिटेन की शीर्ष आव्रजन अधिखरी को ई-मेल भेजा था और इसमें कहा था कि भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस बारे में भारत में ब्रिटेन के उच्चायुक्त से बात की है. इसके 24 घंटे के भीतर मोदी को यात्रा दस्तावेज दे दिए गए थे. अब सुषमा स्वराज का कहना है कि उन्होंने मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए मोदी की सिफारिश की थी ताकि वह अपनी पत्नी को इलाज के लिए पुर्तगाल ले जा सकें. वे लंदन से पुर्तगाल गए और लंदन ही वापस आ गए. इस तरह इस सिफारिश से उनकी स्थिति में कोई अंतर नहीं आया.

भारतीय मीडिया में यह स्कैंडल प्रमुखता से उछलने के बाद सुषमा स्वराज ने प्रधानमंत्री मोदी से बात की और इस समय पूरी भारतीय जनता पार्टी, मोदी सरकार और यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सुषमा के पक्ष में खड़े हो गए हैं. उनका कहना है कि सुषमा स्वराज ने कुछ भी गलत नहीं किया. संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने तो यहां तक कह डाला कि स्वराज ने जो कुछ भी किया, मानवीय और ‘राष्ट्रवादी' दृष्टिकोण के कारण किया. लेकिन क्या बात इतनी सीधी-सरल है?

दरअसल भारतीय कानून की निगाह में ललित मोदी एक ‘भगोड़े' हैं. उन पर 425 करोड़ रुपये की रकम के संबंध में विदेशी मुद्रा कानून के उल्लंघन के मामले की प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जांच चल रही है. इस केस में एक बार हुई पूछताछ के बाद से ही ललित मोदी देश से भाग कर लंदन में जा बसे हैं और पिछले पांच सालों से वहीं रह रहे हैं. उनके खिलाफ सभी भारतीय हवाई अड्डों और बन्दरगाहों को ब्लू-कॉर्नर नोटिस जारी किया जा चुका है जिसका अर्थ यह है कि यदि वे कहीं भी नजर आएं तो उन्हें तुरंत गिरफ्तार करके प्रवर्तन निदेशालय को सौंप दिया जाए. यानी कानून की नजर में वे मुजरिम हैं, भले ही उनका जुर्म अभी पूरी तरह से साबित न हो पाया हो, जिसकी एक वजह यह भी है कि वे जांच एजेंसी के साथ सहयोग नहीं कर रहे हैं. जिस समय सुषमा स्वराज ने उनकी सिफ़ारिश की थी, उस समय उनका पासपोर्ट सरकार ने जब्त किया हुआ था. लेकिन बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने इसे उन्हें वापस कर दिया.

स्वाभाविक है कि विपक्षी दल सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं. यूं समाजवादी पार्टी उनके समर्थन में आगे भी आई है. लेकिन तात्कालिक राजनीति से अलग हटकर देखें तो यह नैतिक प्रश्न अधिक है, राजनीतिक कम. सवाल यह उठता है कि हमारे नेताओं का दिल केवल अमीर और ताकतवर लोगों के लिए ही क्यों पसीजता है? उसमें मानवीय भावनाएं केवल उन्हीं के लिए क्यों जागृत होती हैं? कभी गरीबों के लिए यह मानवीयता जोर क्यों नहीं मारती? क्यों मोदी सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के कामों के लिए बजट में कटौती की है? क्यों हर वर्ष गरीबों को दी जाने वाली सबसिडी पर ही सरकारी कहर टूटता है?

पिछले एक वर्ष से दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाने वाले जी एन साईबाबा जेल में सड़ रहे हैं. उन पर केवल माओवादियों के साथ सहानुभूति रखने का आरोप है, किसी हिंसक गतिविधि में शामिल होने का नहीं. वे शारीरिक रूप से असमर्थ हैं और कई किस्म की बीमारियों से जूझ रहे हैं. उनकी रिहाई के लिए चले अभियानों का सरकार पर कोई असर नहीं हुआ है. किसी के भी दिल में मानवीय दृष्टिकोण अपनाने का विचार नहीं आया. देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे अनेक मामले हैं, लेकिन हमारे नेताओं के दिल को उनसे कभी कोई तकलीफ नहीं होती. दूसरा नैतिक सवाल यह भी है कि क्या विदेश मंत्री को एक ऐसे व्यक्ति की मदद करने के लिए किसी अन्य देश की सरकार से अनुरोध करना शोभा देता है जो अपने ही देश के कानून से भागता फिर रहा हो और जिस पर विदेशी मुद्रा कानूनों का उल्लंघन करने, क्रिकेट में सट्टेबाजी करने और अन्य कई किस्म के घपले करने के गंभीर आरोप लगे हों?

ब्लॉग: कुलदीप कुमार