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मौलिक अधिकार या मौज का बहाना?

१० जनवरी २०१५

संतानोत्पत्ति के लिए सहवास हर जीव की नैसर्गिक जरुरत है. मनुष्यों के मामले में इस जरुरत को कानूनन मूल अधिकार के दायरे में शामिल कर कैदियों को भी इसमें लाने से सजा और सहवास के साहचर्य पर बहस छिड़ गई है.

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तस्वीर: ROBERTO SCHMIDT/AFP/GettyImages

कैदियों के मूल अधिकारों का दायरा भारत में ही नहीं बल्कि कानून के उदारवादी स्वरुप की पैरोकारी करने वाले तमाम देशों में समय के साथ लगातार बढ़ता जा रहा है. जेल की चारदीवारी के भीतर कैदियों को पढ़ने लिखने से लेकर मनोरंजन तक का हक मूल अधिकारों के दायरे में आता है. लेकिन अब बात सहवास तक जा पहुंची है. दैहिक जरुरत के लिए नहीं बल्कि नैसर्गिक जरुरत के नाम पर भारतीय उच्च अदालतों ने कैदियों के लिए साथी के साथ जेल में सहवास का अधिकार दे दिया है. इससे सजा के सुधारात्मक पहलू के औचित्य पर बहस तेज होना लाजिमी है.

पंजाब हाईकोर्ट ने भले ही एक अपील के परिप्रेक्ष्य में यह फैसला दिया हो मगर सुप्रीम कोर्ट काफी पहले इससे आगे की बात कह चुका है. यह बहस 1990 के दशक में उस समय तेज हुई थी जब सर्वोच्च अदालत ने एक महिला याचिकाकर्ता को जेल में बंद पति के साथ सहवास की अनुमति देने को जायज ठहराया था. उस समय भी संविधान के अनुच्छेद 21 को सहारा बनाया गया था और इस बार भी यही प्रावधान कैदियों के लिए ढाल बना है.

इस फैसले के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं. दोनों ही पहलुओं का ताल्लुक अनुच्छेद 21 के दायरे से जुड़ा है. दरअसल प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार देने वाले अनुच्छेद 21 को डा. अंबेडकर ने संविधान की आत्मा कहा था. उनका मानना था कि जीवन जीने के अधिकार में हर व्यक्ति को मानवीय जरुरतों की पूर्ति करने वाले संसाधन मुहैया कराना राज्य का दायित्व है. ऐसे में अनुच्छेद 21 न सिर्फ व्यक्तियों को गरिमामय जिंदगी का अधिकार देता है बल्कि इस अधिकार की पूर्ति के लिए राज्य को उचित संसाधन मुहैया कराने की जिम्मेदारी भी देता है.

जनहित याचिका से लेकर अनुच्छेद 21 से जुड़े अन्य मामलों में उच्च अदालतों के समक्ष इसी दलील को मूल आधार बनाया जाता है. बात जब कैदियों के मूल अधिकार की हो तो फिर साथी के साथ सहवास को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के दायरे में रखना आसान तो है मगर इसके दूरगामी परिणाम अपराधों के लगातार बढ़ते ग्राफ के मद्देनजर चिंता को बढ़ाते हैं.

कैदियों को सहवास का अधिकार देना सजायाफ्ता कैदी और सामान्य नागरिक के भेद को खत्म करने वाली बात होगी. ऐसे में अपराधी को अगर जेल में ही हर तरह का दैहिक सुख मिलने लगे तो फिर अपराध पर नकेल कसने के लिए कानूनी हिरासत के खौफ का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा. हालांकि तथ्य एवं परिस्थितियों को देखते हुए यह अधिकार सशर्त तौर पर दिया जा सकता है लेकिन सभी कैदियों को जेल में साथी के साथ सेक्स की खुली छूट देना तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता. खासकर भारत जैसे देशों में जहां अदालतें वकीलों के लिए कानून की मनमाफिक नूराकुश्ती का अखाड़ा बनती जा रही हैं.

ब्लॉग: निर्मल यादव