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'म्यूनिख नई सोच का सम्मेलन'

मिषाएल क्निगे/एमजे७ फ़रवरी २०१५

म्यूनिख में हर साल होने वाला सुरक्षा सम्मेलन दुनिया की फौरी समस्याओं को सुलझा नहीं सकता, लेकिन उनके हल ढूंढने के लिए जिम्मेदार नेताओं को नए आइडियाज जरूर दे सकता है. डॉयचे वेले के मिषाएल क्निगे इसे बहुत जरूरी मानते हैं.

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तस्वीर: DW/A. Feilcke

एक बात साफ है. वीकएंड में होने वाले म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन के बाद भी दुनिया बदलेगी नहीं. वहां न तो कोई विवाद खत्म किया जाएगा और न ही शांति समझौतों पर दस्तखत होंगे. यह इस सम्मेलन का लक्ष्य भी नहीं है, जिसमें भाग लेने हर साल दुनिया भर के राजनेता और सुरक्षा विशेषज्ञ आते हैं. वह औपचारिक फैसले लेने का मंच नहीं है. वह सुरक्षा मामलों पर अंतरराष्ट्रीय संवाद का उच्चस्तरीय मंच है. ज्यादा से ज्यादा इस तरह का सम्मेलन राजनीतिज्ञों को इस बात का मौका देता है कि वे अपनी बात भूलकर दूसरों को सुनें, उनके नजरिए को जानें और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर खुली बहस में हिस्सा लें. 2015 के शुरू में दुनिया को नए विचारों और सोच की बहुत जरूरत है.

हिस्सेदारी

तीन छोटी मिसालें. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने 9/11 के बाद आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में बहुत ताकत और धन लगाया है. लेकिन करीब डेढ़ दशक बाद आतंकवाद का खतरा घटने के बदले और बढ़ गया है, जैसा कि इराक, सीरिया, नाइजीरिया, यमन और पेरिस में हुई हाल की घटनाएं दिखाती हैं. असली प्रगति अलग दिखती है. आतंकी ठिकानों पर बमबारी और सुरक्षा कानूनों को और सख्त करने से आगे जाने वाले नए प्रस्ताव कहीं नजर नहीं आते.

यूक्रेन संकट दूसरा उदाहरण है. कीव और मॉस्को का विवाद 2013 के अंत में पूरी ताकत के साथ शुरू हुआ. उसके बाद से रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया. तब से रूस समर्थित विद्रोहियों और यूक्रेनी सेना के बीच संघर्ष में 5,000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और लाखों लोग बेघर हो गए हैं. संघर्ष विराम पर सहमति और अथक कूटनीति के बावजूद विवाद और भड़कता गया है. समस्या का समाधान दूर दूर तक नजर नहीं आ रहा.

शरणार्थी संकट एक अन्य उदाहरण है. सीरिया और इराक में हालात के नियंत्रण से बाहर होने के पहले ही दुनिया को शरणार्थियों की बढ़ती संख्या का सामना करने में मुश्किल हो रही थी. इस बीच लाखों दूसरे शरणार्थियों की मुश्किलों की वजह से राजनेता समस्या की गंभीरता को समझ पाए हैं. यह वैश्विक समस्या से स्थानीय समस्या बन गया है. लेकिन अभी भी इस समस्या के समाधान पर साझा रुख नहीं दिख रहा है. खास कर इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा कि लोगों को अपने घरों से भागने से कैसे रोका जा सके.

रचनात्मकता

इस समस्याओं में एक समानता है. समाधान की कई विफल कोशिशों के बाद सरकारों को अब कुछ नहीं सूझ रहा. लेकिन फिर भी विफलताओं से सबक सीखे गए हैं. मसलन अमेरिका में यूक्रेन को हथियारों की सप्लाई पर हो रही बहस और इस्लामी स्टेट पर हवाई हमलों के बावजूद इस पर सहमति है कि न तो आतंकवादी खतरे को और ना ही यूक्रेन संकट का समाधान बल प्रयोग से किया जा सकता है. और यह भी साफ है कि शरणार्थी समस्या के स्थायी समाधान के लिए लोगों की स्थिति उनके देशों में सुधारनी होगी.

ये विभिन्न संकटों के अहम सबक हैं. लेकिन सिर्फ उनकी बात करना काफी नहीं है. इन संकटों को जड़ से खत्म करने के लिए इन सबकों के आधार पर अंतरराष्ट्रीय नीति तय करनी होगी और उन पर अमल करना होगा. ऐसा करने के लिए रचनात्मक हलों की जरूरत है. आउट ऑफ द बॉक्स थिंकिंग की जरूरत है. म्यूनिख का सुरक्षा सम्मेलन यहीं मदद कर सकता है. वह राजनीतिज्ञों और विशेषज्ञों को नए विचारों को सुनने, उन पर बहस करने और उनकी पड़ताल करने का मौका देता है ताकि वे उनका इस्तेमाल समस्याओं का हल करने के लिए कर सकें. उन्हें इसका फायदा उठाना चाहिए.