1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

राख ने कर दी राख, उड़न तकनीक की साख

२३ अप्रैल २०१०

यूरोप के आकाश में हवाई जहाज़ों की गड़गड़ाहट अब फिर गूंजने लगी है. एक ज्वालामुखी से निकली राख के बादलों ने विमानों को हफ़्ते भर ज़मीन पर पंगु बनाए रखा. ऐसा कैसे हुआ कि चींटी ने हाथी के छक्के छुड़ा दिये!

https://p.dw.com/p/N51D
तस्वीर: AP

जो सूक्ष्म है, कई बार वही सबसे विराट रूप धारण कर लेता है. आइसलैंड का इयाफ़याल्ला ज्वालामुखी 200 वर्षों से सोया हुआ था. जागा, तो लावा और कंकड़-पत्थर के साथ-साथ प्रति सेकंड साढ़े सात सौ टन राख भी आकाश में उछालने लगा, कभी कभी तो 11 किलोमीटर की ऊँचाई तक!

ज्वालामुखी से निकलने वाली राख की बनावट के बारे में बर्लिन के पास पोट्सडाम में जर्मन भूविज्ञान शोध संस्थान के डॉ. क्नूट हाने कहते हैं: "सबसे अधिक ख़तरा राख के निचले हिस्सों के बड़े कणों से होता है. अपने वज़न के क्रम में वे पहले ज़मीन पर गिरते हैं. सबसे महीन कण सबसे देर में. पर वे बहुत नुकीले और धारदार होते हैं और पानी के साथ मिल कर एक तरह की बहुत ही मज़बूत सीमेंट बन जाते हैं."

भीम बौने से हारा

सब से महीन कण मुख्य रूप से एक प्रकार के सिलिकॉन के बने होते हैं. वे हवा और भाप के साथ तैरते रहते हैं, केवल एक से सौ माइक्रोमीटर, यानी एक मिलीमीटर के हज़ारवें हिस्से जितने बड़े होते हैं और कई प्रकार से विमानों को नुकसान पहुंचा सकते हैं. विमान से टकराने पर चालक कक्ष यानी कॉकपिट की खिड़कियों और सामने के विंडस्क्रीन को इस बुरी तरह खरोंच सकते हैं कि विमान चालक को कुछ दिखाई ही न पड़े. जेट इंजनों के टर्बाइनों में पहुंचने पर वहां की गर्मी से पिघल कर इस तरह जम जा सकते हैं, मानो किसी ने टर्बाइनों पर कांच का लेप चढ़ा दिया हो.

Flugzeug startet in Deutschland
राख के आगे कुछ नहीं चलीतस्वीर: AP

इंजनों में 1200 डिग्री से अधिक का तापमान होता है. इसी तापमान पर इंजन हवाई केरोसीन कहलाने वाले ईंधन का सर्वोत्तम उपयोग कर पाते हैं. पर, केरोसीन को जलाने के लिए उन्हें जो ऑक्सीजन चाहिये, वह सिलिकॉन वाले कांच की परत चढ़ जाने पर नहीं मिल पायेगी और तब इंजन ठप्प पड़ सकता है. राख के कण विमान के गति और ऊँचाई मापी सेंसरों को भी अवरुद्ध कर सकते हैं.

एक ही विकल्प

यही सब सोच कर अधिकारियों ने आव देखा न ताव, सबसे पहले उन सभी देशों में हवाई उड़ानों पर रोक लगा दी, जहां ज्वालामुखी वाली राख के बदल पहुंचे थे. प्रश्न यह है कि क्या राख के बादल का अस्तित्व भर सभी उड़ानों पर रोक लगाने के लिए पर्याप्त है? जर्मन हवाई और अंतरिक्ष उड्डयन संस्था डीएलआर के वायुमंडल भौतिकशास्त्री हांस फ़ोल्कर्ट कहते हैं: "ज्वालामुखी राख को बहुत ही ख़तरनाक माना जाता है. इसीलिए अब तक केवल एक ही फ़ैसला लिया जाता रहा हैः उड़ान क्षेत्र की हवा में यदि ज्वालामुखी राख है, तो कोई उड़ान नहीं होगी."

Forschungsflugzeugs Falcon 20E
जर्मनी का वायुमंडलीय शोध विमान फ़ाल्कनतस्वीर: picture alliance / dpa

कोई स्थापित मानक नहीं

तब भी, यह जानने के लिए हवा में राख वाले कणों की सघनता कितनी है और वे कितने ख़तरनाक हैं, डीएलआर ने एक विशेष शोध विमान हवा में भेजा. डीएलआर के वायुमंडलीय भौतिक विज्ञान संस्थान के निदेशक उलरिश शूमान ने इस उड़ान के बाद बतायाः "हम अलग अलग ऊँचाइयों पर उड़े. 8 किलोमीटर, 12 किलोमीटर और 2 किलोमीटर की ऊँचाई पर भी. आंकड़े बताते हैं कि राख के बादल वहां हैं. राख के कण बहुत अलग अलग आकार के हैं.... समस्या यह है कि राख के कणों की सघनता जानना ही काफ़ी नहीं है, यह भी जानना ज़रूरी है कि विमान के इंजन उन्हें किस हद तक सह सकते हैं. अभी तक ऐसे कोई मानक नहीं हैं कि राखकणों की सघनता वाली किस सीमा तक विमान उड़ सकते हैं और किस सीमा के बाद नहीं."

फ़ाल्कन कहलाने वाला यह जर्मन विमान यूरोप में अपने ढंग का अकेला है. उसने लेज़र किरणों की सहायता से चार घंटों तक राख के कणों का आकार और हवा में उनकी सघनता नापी. पिछला अनुभव यही है कि पिछले 30 वर्षों में 90 जेट विमान ज्वालामुखी राख से क्षतिग्रस्त हो चुके हैं. 20 मामले अकेले 1991 में फ़िलिप्पीन के पिनातूबो ज्वालामुखी के उद्गार की देन थे.

रिपोर्ट- राम यादव

संपादन- महेश झा