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लगातार गलतियां दोहरा रही है सीपीएम

प्रभाकर मणि तिवारी
२ अगस्त २०१७

पश्चिम बंगाल के राज्यसभा चुनावों में आजादी के बाद यह पहला मौका है जब लेफ्ट फ्रंट का कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं है. मैदान में उतरे एकमात्र सीपीएम उम्मीदवार का पर्चा भी तकनीकी आधार पर खारिज हो गया. आखिर कैसे हुआ यह हाल.

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Indien Kalkutta Communist Party of India
तस्वीर: DW

वर्ष 1952 से होने वाले इन चुनावों में हर बार लेफ्ट के कई-कई उम्मीदवार रहते थे. लेकिन इस बार मैदान में उतरे एकमात्र सीपीएम उम्मीदवार विकास भट्टाचार्य का पर्चा भी तकनीकी आधार पर खारिज हो गया. पहले इस सीट पर सीताराम येचुरी के मैदान में उतरने की बात थी. लेकिन पार्टी की केंद्रीय समिति ने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया.

वामपंथी हलकों में इस फैसले को एक और ऐतिहासिक भूल माना जा रहा है. दरअसल, येचुरी 'दक्षिण बनाम उत्तर लॉबी' के झगड़े का शिकार बन गये. अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के भूपेश गुप्ता वर्ष 1952 में बंगाल से राज्यसभा के लिए चुने जाने वाले पहले वामपंथी नेता थे.

कभी लालकिला के नाम से मशहूर बंगाल में लेफ्ट के बुरे दिन तो वर्ष 2011 में हुए विधानसभा चुनावों के पहले से ही शुरू हो गए थे. उसके बाद हुए हर चुनाव में उसके पैरों तले की जमीन खिसकती रही. राहत की बात यह थी कि संसद के ऊपरी सदन यानी राज्यसभा में यहां से सीताराम येचुरी समेत कई नेता चुने जाते रहे. कभी कांग्रेस के समर्थन से तो कभी तृणमूल कांग्रेस के. लेकिन अबकी तो सूपड़ा ही साफ हो गया.

प्रदेश सीपीएम को सीताराम येचुरी का समर्थक माना जाता है. राज्यसभा चुनावों के एलान से बहुत पहले ही यहां के नेताओं ने येचुरी को कांग्रेस के समर्थन से उम्मीदवार बनाने संबंधी एक प्रस्ताव पारित कर उसे केंद्रीय नेतृत्व को भेज दिया था. लेकिन सीपीएम की केंद्रीय समिति लकीर की फकीर बनी रही. उसकी दलील थी कि किसी भी नेता को तीसरे कार्यकाल की इजाजत नहीं दी जा सकती. येचुरी के महासचिव रहते इस नियम के उल्लंघन करने का गलत संदेश जाएगा.

हालांकि पार्टी में पहले भी इस नियम में ढील दी जाती रही है. शायद बंगाल माकपा को सबक सिखाने के लिए ही केंद्रीय समिति ने सीताराम की उम्मीदवारी को मंजूरी नहीं दी. लेकिन ऐसा करते हुए वह शायद भूल गयी कि इसके कारण पहले से ही कमजोर सीपीएम की जड़ें और खोखली हो जाएंगी.

ऐतिहासिक भूल की परपंरा

वैसे, सीपीएम में ऐतिहासिक भूल की परंपरा पुरानी है. वर्ष 1979 में पार्टी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई सरकार के खिलाफ पेश अविश्वास प्रस्ताव के विरोध में तो वोट दिया ही था, चौधरी चरण सिंह का भी समर्थन किया था. इस मुद्दे पर पार्टी में काफी मतभेद हुए थे. वर्ष 1982 में विजयवाड़ा में हुए पार्टी कांग्रेस में ज्योति बसु और प्रमोद दासगुप्ता जैसे नेताओं ने जब केंद्रीय नेतृत्व के उक्त फैसले का विरोध किया तो शीर्ष नेताओं ने साफ कहा था कि बंगाल सीपीएम को राष्ट्रीय मुद्दों पर लिये गये फैसलों पर सवाल उठाने का अधिकार नहीं है.

इस घटना को पार्टी में जुलाई संकट के नाम से जाना जाता है. इंदिरा गांधी के समर्थन में विरोधी एकता भंग करने को बाद में सीपीएम की बड़ी भूल करार दिया गया था. इसी तरह के एक फैसले में वर्ष 1996 में शीर्ष नेतृत्व ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था. बाद में खुद बसु ने ही इसे ऐतिहासिक भूल माना था.

उसके बाद परमाणु समझौते के मुद्दे पर केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला भी बाद में सीपीएम में मतभेदों की वजह बना. दरअसल, वहीं से सीपीएम के पैरों तले की जमीन खिसकने का सिलसिला भी शुरू हुआ. अब सीताराम येचुरी को उम्मीदवार नहीं बनाना, राजनीतिक हलकों में प्रकाश कारत व केरल लॉबी की एक और ऐतिहासिक भूल माना जा रहा है.

गलतियों से सबक नहीं

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पूरे देश में फिलहाल लेफ्ट की हालत कमजोर हो रही है. ऐसे में वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले सीताराम येचुरी राज्यसभा में विपक्ष की दमदार आवाज हो सकते थे. लेकिन अपने तथाकथित नियमों और आदर्शों की दुहाई देते हुए उनकी उम्मीदवारी का प्रस्ताव खारिज कर सीपीएम के शीर्ष नेतृत्व ने खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है.

एक पर्यवेक्षक प्रोफेसर रंजन मंडल कहते हैं, "सीपीएम ने लगता है अतीत की गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा है. भारतीय कम्युनिस्ट अब भी पूर्व सोवियत संघ और चीन को ही अपना आदर्श मानते रहे हैं." पर्यवेक्षकों का सवाल है कि अगले लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए बीजेपी जब अपने अध्यक्ष अमित शाह को राज्यसभा में ला रही है तो सीताराम येचुरी जैसे कुशल वक्ता और राजनेता को राज्यसभा से बाहर रखना कहां तक उचित है?

राजनीति का जो सामान्य गणित आम लोग भी समझते हैं वह सीपीएम के शीर्ष नेताओं को आखिर समझ में क्यों नहीं आ रहा है? या फिर नियमों की दुहाई देकर महज नाक की लड़ाई में देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी खुद अपनी कब्र खोदने पर आमादा है? इन सवालों का जवाब तो पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व ही दे सकता है. लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि उससे यह सवाल करेगा कौन?