1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

लेबर के सामाजिक सुरक्षा कोड से मजदूरों को क्या मिलेगा

शिवप्रसाद जोशी
१२ दिसम्बर २०१९

सामाजिक सुरक्षा संहिता बिल 2019 को लोकसभा में पेश कर दिया गया है. तीन संहिताएं पहले ही संसद का रुख कर चुकी हैं. 44 श्रम कानूनों की जगह लाई गईं इन संहिताओं से कर्मचारियों-मजदूरों का कितना भला होगा, इस पर सवाल हैं.

https://p.dw.com/p/3UcsR
Indien Jharkhand | Arbeiten an einer der höchsten Straßen der Welt
तस्वीर: AFP/X. Galiana

भारत सरकार के कथित आर्थिक और सामाजिक सुधारों की कड़ी में सभी 44 श्रम कानूनों में रद्दोबदल कर उनके स्थान पर चार संहिताएं बनायी गयी हैं. सामाजिक सुरक्षा, वेतन, औद्योगिक संबंध, और सुरक्षा स्वास्थ्य और काम के हालात. केंद्रीय कैबिनेट सभी चार संहिताएं बारी बारी से मंजूर कर चुकी है. इनमें से वेतन संहिता अगस्त में संसद से पास करा ली गयी थी जबकि पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम के हालत वाली संहिता को श्रम पर गठित संसद की स्थायी समिति को रेफर किया गया है. औद्योगिक संबंध संहिता बिल 2019 संसद में रखा जा चुका है. अब केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने बुधवार को लोकसभा में सामाजिक सुरक्षा संहिता बिल 2019 पेश किया है.

इसके तहत देश में कार्यरत 60-70 करोड़ कर्मचारियों-कामगारों की सामाजिक सुरक्षा को सार्वभौम बनाने का दावा किया जा रहा है. 44 श्रम कानूनों की जगह बनायी गईं चार श्रम संहिताओं में से सामाजिक सुरक्षा संहिता के हिस्से आठ केंद्रीय श्रम कानून आए हैं जिन्हें इस संहिता में विलीन कर दिया गया हैः इम्प्लॉइज कंपेनसेशन एक्ट 1923, इम्प्लॉइज स्टेट इंश्योरेंस एक्ट 1948, इम्प्लॉइज प्रोविडेन्ट फंड्स ऐंड मिसलेनियस प्रोवीजंस एक्ट 1952, मैटर्निटी बेनेफिट एक्ट 1961, पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी एक्ट 1972, सिने वर्कर्स वेल्फेयर फंड एक्ट 1981, बिल्डिंग ऐंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स सेस ऐक्ट, 1997 और अनऑर्गनाइज्ड वर्कर्स सोशल सिक्योरिटी ऐक्ट 2008.

Indien Bangalore - Symbolbild Strassenarbeit
तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Sarkar

नये बिल के तहत एक सामाजिक सुरक्षा कोष बनाये जाने का प्रावधान है जो कॉरपोरेट सोशल जवाबदेही (सीएसआर) के अन्तर्गत उपलब्ध रहेगा. फंड के दायरे में आने वाले लाभों में पेंशन, मेडिकल, मृत्यु और विकलांगता से जुड़ी सहायताएं और सुविधाएं शामिल हैं. पार्ट टाइम कामगार भी इसमें शामिल बताए गए हैं. संगठित क्षेत्र के करोड़ों कर्मचारियों को अपने पीएफ योगदान में कटौती कर उसके बदले टेकहोम पगार बढ़ाने का विकल्प मिलेगा. अभी उन्हें अपने पीएफ में बेसिक सेलरी का 12 प्रतिशत जमा कराना पड़ता है, और इतना ही अंश कर्मचारी के खाते में सरकार भी जमा कराती है, बताया गया है कि वो अपना हिस्सा जमा कराती रहेगी. कर्मचारी चाहें तो अपना हिस्सा कम डालें. सुविधा देने के पीछे दलील ये है कि इससे खर्च में तेजी आएगी, खपत बढ़ेगी जिसका असर कुल वृद्धि पर भी दिखेगा. जानकारों को लेकिन इसमें संदेह है क्योंकि ईपीएफओ के तहत कुल हासिल मद पहले से ही गिरावट झेल रही जीडीपी में उल्लेखनीय योगदान करने में समर्थ नहीं.

श्रम मंत्रालय ने उस प्रस्ताव को भी हटा दिया है जिसके तहत ईपीएफओ के ग्राहकों को नेशनल पेंशन सिस्टम में स्विच करने का विकल्प दिये जाने की बात थी. ईपीएफओ की मौजूदा स्वायत्तता को भी बनाए रखने का निर्णय लिया गया है. पहले इसे कॉरपोरेटाइज करने का प्रस्ताव था. आरएसएस से जुड़े भारतीय मजदूर संघ ने भी इसका खुलकर विरोध किया था. हालांकि उसकी शिकायतों की फेहरिस्त लंबी थी, उन सबका निदान हो पाया या नहीं, यह अभी स्पष्ट नहीं है. यह तय है कि मजदूर संगठन इन संहिताओं को लेकर फिर से जल्द ही आंदोलित होंगे क्योंकि उनकी कई चिंताएं जस की तस हैं. खासकर सबसे बड़ा सवाल तो उनके अस्तित्व का ही है.

अपने आवरण में दर्शनीय और कल्याणकारी से दिखने वाले ये लेबर कोड्स अंदरूनी बुनावट और निहितार्थों में जटिल, अस्पष्ट और अधिकारों को कमजोर करने वाले लगते हैं. खासकर सामाजिक सुरक्षा को ही लें. सामाजिक सुरक्षा और कल्याण श्रम संहिता के तहत 166 धाराएं बनाई गई हैं जो 22 खंडों और छह अनुसूचियों में बंटी हैं. कर्मचारी पंजीकरण से लेकर, नियंत्रण और दंड के प्रावधान इसमें रखे गए हैं. देश के कुल कामगारों में से 90 फीसदी से अधिक कर्मचारी, असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं. जाहिर है लोकसभा में प्रस्तुत संहिताओं को इस बड़ी मजदूर आबादी पर ध्यान देना होगा.

कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच कानून के लिहाज से एक ऐसी पारदर्शिता और बाध्यता विकसित करने का दावा है जिसमें किसी दबाव समूह की बहुत जरूरत नहीं रहेगी. लेकिन नियोक्ता अपना दायित्व नैतिक और कानूनी विवेक के साथ निभा रहा है, यह कौन और कैसे तय करेगा. ट्रेड यूनियनें यहां पर काम आती हैं, हालांकि ये भी एक सच्चाई है कि सार्वजनिक उद्यमों में मजदूर यूनियनों की भूमिका लगातार सिकुड़ ही रही है. खुद ऐसे उपक्रम एक एक कर विनिवेश की नयी आर्थिकी में धकेले जा रहे हैं. मुक्त अर्थव्यवस्था के इस दौर में छंटनी जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं. बड़े औद्योगिक घराने से लेकर मझौले और छोटे कारोबारी उद्यमों के कर्मचारियों की मुश्किलों थम नहीं रही हैं. स्टार्टअप परियोजनाओं की अपनी दुश्वारियां हैं और कुछ अपवादों को छोड़ दें तो उनकी ढांचागत कमजोरियां सामने आने लगी हैं.

नये कानून के तहत कर्मचारियों के लिए ये अनिवार्य कर दिया गया है कि 14 दिन का नोटिस देने के बाद ही वे हड़ताल पर जा सकते हैं. सामाजिक सुरक्षा की राष्ट्रीय परिषद् में कर्मचारियों के प्रतिनिधियों की कम संख्या भी चिंताजनक है. इसी तरह मातृत्व लाभ की शर्तों में बदलाव से उन महिलाओं पर भी असर पड़ सकता है जिनके पास कोई नियमित रोजगार नहीं. आलोचकों के मुताबिक संहिता में अधिकारों की बजाय "लाभ” की शब्दावली से काम चलाया गया है मानो संवैधानिक दायित्व वाली सरकार नहीं, कोई दानदाता या परोपकारी एजेंसी हो.

__________________________

हमसे जुड़ें: WhatsApp | Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें