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लॉकडाउन में मिड-डे मील योजना को बचाए रखने की चुनौती

शिवप्रसाद जोशी
५ जून २०२०

लॉकडाउन के दौरान जिन बुनियादी मामलों पर सरकारों, प्रशासनों और एजेंसियों का बहुत कम ध्यान जा पाया, उनमें मिड-डे मील योजना भी एक है. जिन तबकों को सबसे ज्यादा सहायता की जरूरत है वही सबसे बुरी मार झेल रहे है.

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भारत में मिड-डे मील
तस्वीर: picture alliance/AP Photo

कोविड संकट और लॉकडाउन के बीच मिड-डे मील को जारी रखने के मामले में कई राज्यों की ढिलाई और जरूरी तैयारियों का अभाव करीब तीन महीने पहले ही दिख चुका था, जब सुप्रीम कोर्ट ने 18 मार्च को सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों से नोटिस जारी कर पूछा कि स्कूल बंद कर दिए जाने के बाद वे अपने यहां मिड-डे मील योजना क्यों नहीं जारी रख पा रहे हैं. और अगर जारी रखेंगे तो किस सूरत में. आननफानन में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 20 मार्च को सभी राज्यों को भेजे गए निर्देश में ये स्पष्ट किया था कि लॉकडाउन के बावजूद सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील योजना चलती रहनी चाहिए. इसके तहत बच्चों को राशन या भत्ता मिलना चाहिए.

बताया जाता है कि केरल अकेला ऐसा राज्य था जिसने लॉकडाउन की घोषणा होते ही मिड-डे मील की व्यवस्था को घर घर तक पहुंचाने का खाका बना लिया था. अन्य राज्य भी धीरे धीरे हरकत में आए. लेकिन राज्यों की बनाई व्यवस्था में एक सुसंगत और व्यवस्थित रणनीति का अभाव भी देखा गया. फिलहाल सभी सरकारों का दावा है कि उनके यहां किसी न किसी रूप में मिड-डे मील का लाभ गरीब स्कूली बच्चों को मिल रहा है, कहीं कच्चे राशन के रूप में तो कहीं भोजन के समतुल्य धनराशि को खाते में जमा करने के रूप में तो कहीं भोजन के पैकेट घर घर पहुंचाने के रूप में.

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बिहार ने मार्च में डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर, डीबीटी के तहत परिजनों के खाते में मिड-डे मील के समतुल्य धनराशि जमा कराने का फैसला किया था. पहली से पांचवी तक के बच्चों के लिए 114 रुपये और छठी से आठवीं तक के बच्चों के लिए 171 रुपए रखे गए थे. यूपी ने दिहाड़ी कामगारों को एकमुश्त एक हजार रुपये की मदद का प्रावधान रखा जिसमें स्कूली बच्चों की मदद भी शामिल बताई गयी. यूपी ने गरीब तबकों के लिए मुफ्त राशन भी आवंटित किया. हरियाणा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में लाभार्थियों के घरों तक राशन पहुंचाने की व्यवस्था बनाई गई. लॉकडाउन की अवधि को 15 जून तक बढ़ाने वाले देश के पहले राज्य मध्य प्रदेश में मिड-डे मील योजना के तहत भोजन के समतुल्य धनराशि जमा की गई. सरकार का दावा है कि राज्य में प्राइमरी और अपर प्राइमरी के 66 लाख बच्चों के खाते में करीब 146 करोड़ रुपये जमा करा दिए गए हैं. मार्च में बीपीएल परिवारों को मुफ्त राशन की व्यवस्था करा देने का दावा भी किया गया था.

जम्मू कश्मीर, असम, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे कुछ राज्य तो मिड-डे मील योजना के लाभार्थियों को कच्चा राशन मुहैया करा पा रहे हैं लेकिन दिल्ली जैसे राज्यों में कोई ठोस तरीका विकसित ही नहीं हो पाया है. एक आरटीआई के हवाले से वेबपत्रिका द वायर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तराखंड सरकार अप्रैल और मई के दौरान करीब पौने दो लाख बच्चों को भोजन, राशन या भत्ता मुहैया नहीं करा पाई. इसका अर्थ ये है कि इस अवधि में हर पांच में से एक बच्चा मिड-डे मील योजना के लाभ से वंचित रहा. इसी तरह त्रिपुरा में आरटीआई के जरिए एक कमी कथित रूप से उजागर हुई है कि परिजनों के खातों में पैसे डाल तो दिए गए लेकिन वो राशि मिड-डे मील पकाने में आने वाली लागत से भी बहुत कम थी. जबकि पूर्वोत्तर राज्य होने के नाते त्रिपुरा में मिड-डे मील योजना के तहत भोजन पकाने की कीमत का 90 फीसदी खर्च केंद्र वहन करता है.

इन्हें मिलता है मिड-डे मील का लाभ

मिड-डे मील योजना के तहत सरकारी, सहायता प्राप्त, सिटी बोर्ड के स्कूलों, शिक्षा गारंटी स्कीम और वैकल्पिक नवोन्मेषी शिक्षा केंद्रों, सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय बाल श्रम विद्यालय के तहत सहायता प्राप्त मदरसों, मकतबों में प्राइमरी और अपर प्राइमरी में पढ़ने वाले बच्चों को मुफ्त भोजन मुहैया कराया जाता है. मिड-डे मील के तहत सरकारी प्राइमरी स्कूलों में प्रत्येक बच्चे को 100 ग्राम और अपर प्राइमरी में 150 ग्राम खाद्यान्न मुहैया कराने का प्रावधान किया गया है. केंद्र सरकार के मुताबिक 15 अगस्त 1995 को शुरू हुई इस योजना से इस समय देश के नौ करोड़ स्कूली बच्चे लाभान्वित होते हैं. योजना को लागू करने में बदइंतजामी के अलावा कई राज्यों में भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और आपराधिक लापरवाही के मामले भी सामने आते रहे हैं.

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इसी वर्ष एक अप्रैल से प्रभावी नए नियमों के मुताबिक, प्रति स्कूल प्रति छात्र भोजन पकाने की लागत प्राइमरी और अपर प्राइमरी में क्रमशः करीब पांच रुपये और करीब साढ़े सात रुपये कर दी गई है. इस व्यवस्था के तहत दाल, सब्जी, तेल, मसाले और ईंधन शामिल है. योजना के लाभार्थी बच्चे आर्थिक रूप से कमजोर तबकों से आते हैं. लॉकडाउन ने इन तबकों को और गहरी चोट पहुंचाई है. हाल के अध्ययनों और सर्वे रिपोर्टों के मुताबिक ऐसे गरीब परिवारों के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुश्किल होता जा रहा है.

बच्चों को पोषणयुक्त आहार की चिंता

28 अप्रैल को राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के साथ वर्चुअल बैठक में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा था कि मिड-डे मील या खाद्य सुरक्षा भत्ता गर्मियों की छुट्टियों के दौरान भी उपलब्ध कराया जाएगा ताकि कोरोना संकट के बीच रोग प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने के लिए बच्चों को पर्याप्त और पोषणयुक्त आहार मिलता रह सके. लेकिन केंद्र सिर्फ निर्देश या सलाह देकर छुट्टी नहीं पा सकता. राज्यों की कुछ मुश्किलें भी हैं. लॉकडाउन और संक्रमण के खतरों के बीच प्रशासनिक मशीनरी की आवाजाही, स्वास्थ्यकर्मियों और आंगनबाड़ी वर्करों की भी सुरक्षा से जुड़ी कई व्यवहारिक कठिनाइयां और चिंताएं हैं. राज्यों के अपने आर्थिक संकट जो हैं सो हैं. केंद्र से फंड और खाद्यान्न की मांग की जा रही है. हालांकि खाद्यान्न को लेकर किसी तरह की पाबंदी या किल्लत नहीं बताई जाती है. 1600 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च ग्रीष्मावकाश में भोजन मुहैया कराने के लिए जारी किया गया है. कोविड संकट के दौरान, मिड-डे मील की कुकिंग कॉस्ट के लिए सालाना केंद्रीय आवंटन 7300 करोड़ से बढ़ाकर 8100 करोड़ रुपये किए जाने का ऐलान भी किया गया है.

भारत में मिड-डे मील
तस्वीर: DW/Nirmal Yada

मदद की इस घोषणा या आश्वासन के बावजूद राज्य सरकारें शिथिल दिखती हैं या उनका कहना है कि बजट पर्याप्त नहीं है. वैसे यह भी स्पष्ट नहीं है कि घोषणा के बावजूद क्या ये बजट राज्यों तक पहुंचा है और खाद्यान्न को लेकर उनकी मांग अभी पूरी नहीं हुई है या ये फिर ये सारा खेल, आंकड़ों की गेंद को इस पाले से उस पाले में रवाना कर देने भर का रह गया है. देश के अन्न भंडार जब भरे हुए बताए जा रहे हैं और ‘भोजन की किल्लत नहीं है’ के दावे हर तरफ सुनाई दे रहे हैं तो इस भंडार में से कुछ हिस्सा उन बच्चों तक निर्बाध रूप से पहुंचना चाहिए जो उसके सबसे पहले और सबसे वाजिब हकदार हैं.

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