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पेगीडा टूटने की कगार पर पहुंचा

फेलिक्स श्टाइनर/एमजे३० जनवरी २०१५

इस्लाम विरोधी पेगीडा नेतृत्व के इस्तीफे के बाद उसका अंत अनिवार्य लगता है. लेकिन उसने जो सवाल उठाए वे अब भी कायम हैं. डॉयचे वेले के फेलिक्स श्टाइनर कहते हैं कि सवाल यह भी है कि पेगीडा के समर्थक अब कहां जाएंगे.

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तस्वीर: Reuters/H. Hanschke

कभी कभी लोग अपनी ही कामयाबी के शिकार हो जाते हैं. खासकर राजनीतिक पार्टियों और आंदोलनों के शुरुआती दिनों में ऐसा काफी होता है. यदि नए दल को सफलता मिलती है तो वह दूसरे असंतुष्ट और कुंठित लोगों को भी आकर्षित करता है. फिर वे अपने विचारों और हितों के जरिए संगठन की सहनशीलता को चुनौती देते हैं. नतीजा विभिन्न धड़ों के बीच आपसी झगड़ा होता है. इससे राजनीतिक रूप से गैरअनुभवी नेताओं को परेशानी होती है, जिन्हें अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए कहीं काम भी करना होता है. झगड़े से समर्थक परेशान होते हैं और समर्थन घटना शुरू होता है. इससे पहले यह श्टाट पार्टाई और पाइरेट पार्टियों के साथ हो चुका है. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया. एएफडी पार्टी का कितना भविष्य है यह समय बताएगा.

पेगीडा का अंत

पश्चिम को इस्लामीकरण से बचाने के लिए संघर्ष कर रहे विरोध आंदोलन पेगीडा के साथ भी आने वाले दिनों में यही होगा. स्वाभाविक रूप से ड्रेसडेन में कुछ और रैलियां निकलेंगी, लेकिन उनमें पहले से कम लोग आएंगे. लोग कम आएंगे तो मीडिया में उन पर रिपोर्ट भी कम होगी, रिपोर्ट कम होगी तो अगली बार और कम लोग आएंगे. पेगीडा अपने खात्मे की ओर मार्च करती जाएगी. उसके बाद कभी न कभी इतिहासकारों के लिए सवाल बच जाएगा कि पेगीडा में कब क्या हुआ. पहले तेजी से बढ़ता नागरिक आंदोलन था, जिसे उग्र दक्षिणपंथियों ने हथिया लिया या फिर शुरु से ही यह उग्रदक्षिणपंथी आंदोलन था जिसे आम लोगों को स्वीकार्य मांगे तय करने में कामयाबी मिली थी.

Felix Steiner
फेलिक्स श्टाइनरतस्वीर: DW/M.Müller

जर्मनी के मीडिया दफ्तरों और राजनीतिक वर्ग ने ड्रेसडेन से आई खबर से राहत की सांस ली है. पेगीडा ने वहां असमंजस की स्थिति पैदा कर दी थी. किसी को नजरअंदाज करने के बदले उसे अपनी बातों का कायल बनाना एक जीवंत लोकतंत्र का पैमाना होता है. जो लोकतंत्र को ही खत्म करना चाहते हैं, उनके साथ नहीं बल्कि उनके खिलाफ लड़ना होगा. उनके साथ, जो लोग अपनी बात कहना चाहते हैं, भले ही वह कितनी भी अलग क्यों न हो. इसके अलावा पेगीडा की रैलियां खत्म हो भी जाएं, लेकिन प्रदर्शनकारियों के सवाल बचे रहेंगे.

सवाल बाकी हैं

मसलन यह कि हम अपने समाज में उन चरमपंथी मुसलमानों के साथ किस तरह पेश आएंगे, जो हमारी आजादी और सहिष्णुता की संस्कृति से नफरत के कारण हमलावर बन सकते हैं. सवाल ये भी है कि अब जर्मनी में भी हो रही जबरन शादियों या इज्जत के नाम पर की जाने वाली हत्यायों की मीडिया में चर्चा क्यों नहीं होती. क्या जर्मनी के प्रेस कोड में भेदभाव पर रोक इसके लिए जिम्मेदार है? इसी आधार पर मीडिया पर झूठे होने के आरोप लगते हैं. यह सवाल कि क्या शरणार्थियों को शिविरों के बदले फ्लैटों में नहीं ठहराया जाना चाहिए, क्योंकि पड़ोस में रहने वाले पांच पराए लोग, 500 परायों के बनिस्पत कम चिंता पैदा करेंगे. लेकिन इन सवालों पर जर्मनी में कहां चर्चा होती है? सत्ताधारी सीडीयू और एसपीडी की शाखाओं की बैठकों में तो नहीं.

अहम सवाल यह रहेगा कि पेगीडा के समर्थकों को कौन स्वीकार करेगा. एसपीडी नेता जिगमार गाब्रिएल का हाल में ड्रेसडेन जाना महत्वपूर्ण संकेत था, लेकिन पार्टी उनके खिलाफ थी. सीडीयू में पार्टी उपाध्यक्ष यूलिया क्लॉकनर ने हिम्मत की और पेगीडा समर्थकों के लिए समझ दिखाई लेकिन मीडिया ने उन पर नाजियों के समर्थन होने के आरोप लगाए. बचती है एएफडी, जिसकी पार्टी कांग्रेस के बाद पता चलेगा कि वह किस ओर जाएगी. मुख्य सवाल यह है कि क्या जर्मनी में यूनियन पार्टियों के दक्षिण में कोई पार्टी हो सकती है? यदि हां, तो अंगेला मैर्केल के दिमाग में घंटियां बजने लगेंगी क्योंकि उनके पास महागठबंधन को छोड़कर सरकार बनाने का कोई और विकल्प नहीं बचेगा. यह सोचना भूल होगी कि पेगीडा की समस्या अपने आप सुलझ गई. पेगीडा के विघटन के बाद स्थापित आमजन की पार्टियों को भी इन सवालों पर मंथन करना होगा.