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विज्ञान की कब्र खोदने में जुटे वैज्ञानिक

८ अक्टूबर २०१८

दिन में 5 बार कॉफी पिएंगे तो ये फायदे होंगे. कुछ दिन बाद पांच कॉफी पीने से होने वाले नुकसान की रिपोर्ट सामने आएगी. इटली के एक वैज्ञानिक के मुताबिक वैज्ञानिकों की इन हरकतों के चलते विज्ञान मुंह के बल गिर सकता है.

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तस्वीर: picture alliance/AP Photo/Jin Liwang

जियानफ्रांको पाचिओनी मैटीरियल केमिस्ट्री के प्रोफेसर और इटली की मिलानो बिकोका यूनिवर्सिटी में रिसर्च के वाइस रेक्टर हैं. हाल ही में उन्होंने विज्ञान जगत में दाखिल हो चुकी लापरवाहियों को लेकर "द ओवर प्रोडक्शन ऑफ ट्रुथ- पैशन, कम्पिटिशन एंड इंटेग्रिटी ऑफ मॉर्डन साइंस" नाम की किताब भी लिखी है. डॉयचे वेले ने जियानफ्रांको पाचिओनी से बातचीत की. पेश है उस बातचीत के अहम बिंदु.

डॉयचे वेले: आपकी किताब का नाम है, "द ओवरप्रोडक्शन ऑफ ट्रुथ." ये सनीसनीखेज शीर्षक है. आप किस आधार पर कह रहे हैं कि इन दिनों विज्ञान जगत में खूब फर्जीवाड़ा चल रहा है. आपके मुताबिक रिसर्च पेपरों के प्रकाशन की बढ़ती संख्या, उनकी गिरती क्वॉलिटी और युवा वैज्ञानिकों पर रिसर्च पेपर छपवाने का दबाव है. क्या इससे विज्ञान मुश्किल में है?

जियानफ्रांको पाचिओनी: विज्ञान मुश्किल में नहीं है क्योंकि आज भी चोटी के वैज्ञानिक जबरदस्त खोज कर रहे हैं और जिस दुनिया में हम रहते हैं उसे बदल रहे हैं.

लेकिन समाज के बीच में विज्ञान की छवि खराब हो सकती है, विज्ञान की अहमियत कम हो सकती है. जो लोग विशेषज्ञ नहीं हैं, जब उनके सामने कोई जानकारी आती है तो वो उसे पूरी तरह परख नहीं पाते हैं, अच्छे और बुरे या जरूरी और गैरजरूरी के बीच में फर्क नहीं कर पाते हैं. 

वैसे मूल रूप से इटैलियन भाषा में किताब का शीर्षक है, "साइंजा, क्वो वादिस." इसका मतलब है कि "हम कहां जा रहे हैं." मुझे लगता है कि जिस दिशा में अभी हम आगे बढ़ रहे हैं उससे समाज के बीच विज्ञान की छवि धूमिल हो सकती है.

हमें आप एक ऐसा उदाहरण दीजिए, जिससे पता चल सके कि ये नुकसान कैसा हो रहा है?

विज्ञान का एक मजबूत स्तंभ एक प्रक्रिया है कि सभी नतीजों को अच्छे से पुख्ता किया जाएगा और फिर सर्टिफाई किया जाएगा. अच्छी रिव्यू प्रोसेस में ऐसा ही होता है.

आज विज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों और रिसर्च पेपर की संख्या बढ़ती जा रही है. इसके साथ यह भी सच है कि रिसर्च पेपरों की क्वॉलिटी गिरती जा रही है. कुछ ही ऐसी पत्रिकाएं हैं जो रिसर्च से जुड़ी रिपोर्ट छापने से पहले गहन वैज्ञानिक शोध करती हैं.

ऐसे जर्नल भी कई हैं जो बिना जांच परख के, पैसा लेकर रिसर्च पेपर छाप देते हैं, इस तरह एक भ्रष्ट सिस्टम शुरू हो चुका है.

लेकिन पब्लिकेशन के पारंपरिक तरीके की भी तो काफी आलोचना होती है, उसे निष्पक्ष नहीं बताया जाता है. कहा जाता है कि वह विज्ञान तक लोगों की पहुंच को सीमित करते हैं. पाठकों को पैसा देना पड़ता है. इन दिनों हम "ओपन सोर्स" देख रहे हैं, जहां मसलन किसी दवा की खोज के नतीजे तुरंत मुफ्त में साझा किए जाते हैं.

ये दोनों अलग अलग विषय है. एक तरफ ओपन डाटा का सवाल है, समाज उस डाटा तक पहुंचना चाहता है, जो कि सैद्धांतिक रूप से सही भी है. लेकिन यह डाटा पहले भी पूरी तरह बंद बिल्कुल नहीं था. लोग हमेशा इस तक पहुंच सकते थे, लेकिन पहले यह काम पुस्तकालयों में होता था. आज ऐसे टूल्स बन गए हैं कि यह काम आसानी से हो जाता है, आपको लाइब्रेरी नहीं जाना पड़ता, आप इस जानकारी को डाउनलोड कर सकते हैं.

तो समस्या कहां है?

मौजूदा सिस्टम में है. जिस तरह रिसर्च को फाइनेंस किया जाता है, करियर बनाया जाता है, ये चीजें पहले कभी इतनी तेज रफ्तार से नहीं हुईं. इन्हें रोकना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है. हमें लोगों और संस्थानों का मूल्यांकन करना होगा. हमें संख्या से ज्यादा गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा. ज्यादा अहमियत वाले कम शोध, कम अहमियत वाले ढेर सारे शोधों से कहीं बेहतर हैं. कहने में यह आसान है लेकिन करने में काफी मुश्किल.

भारत में साइंटिफिक रिसर्च के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति

नकल, फर्जी शोध या विवादास्पद नतीजों वाली रिसर्च के कई मामले सामने आ रहे हैं. हाल ही में गलत दावा किया गया कि चेचक, घेंघा और खसरे की वैक्सीन से ऑटिज्म का खतरा पैदा होता है. इसका जिक्र आपने अपनी किताब में भी किया है. क्या किताब का शीर्षक आपने इन्हीं कारणों के चलते ऐसा रखा?

विज्ञान, एक इंसानी गतिविधि है और वैज्ञानिक समुदाय के बीच में इसका एक नैतिक पहलू भी है. मुझे किसी ने विज्ञान के नैतिक सिद्धांत नहीं समझाए, लेकिन मैंने यह सिद्धांत उन लोगों से सीखे जिन्होंने पूरी दृढ़ता से इनका पालन किया. तेजी से फैलते वैज्ञानिक समुदाय में ये नैतिक सिद्धांत गायब होने लगे हैं और यह गंभीर बात है.

गंभीरता से भरे वैज्ञानिक आज भी तब तक नतीजे प्रकाशित नहीं करते जब तक वो पूरी तरह आश्वस्त न हो जाएं. लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो दबाव में काम करते हैं और उनमें नैतिकता का स्तर भी इतना ऊंचा नहीं होता, वो कुछ भी छाप देते हैं. और मैं इसी को खतरा मानता हूं.

इंटरव्यू: जुल्फिकार अब्बानी/ओएसजे