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कितना कारगर होगा राजनीतिक विलय

१६ अप्रैल २०१५

राष्ट्रीय विपक्ष में बहुत दिनों बाद कुछ जान पड़ती नजर आ रही है. छह राजनीतिक दलों ने फैसला लिया है कि वे मिलकर एक नया दल बनाएंगे ताकि भारतीय जनता पार्टी को आने वाले समय में मजबूत टक्कर दी जा सके.

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तस्वीर: Getty Images/Afp/Sajjad Hussain

कागज पर तो यह विलय बहुत शानदार और जानदार लगता है लेकिन जमीन पर यह कितना प्रभावी हो पाएगा, इस बारे में अभी केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या निषेध पर आधारित राजनीति दीर्घकालिक और टिकाऊ हो सकती है? पिछला अनुभव इस बारे में बहुत आश्वस्त नहीं करता. 1977 में कांग्रेस और इमरजेंसी के विरोध में जनसंघ, कांग्रेस (संगठन), भारतीय लोक दल जैसी कई पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी बनायी, जिसने लोकसभा चुनाव में पहली बार कांग्रेस को केंद्र में सत्ता से बाहर किया. लेकिन यह एकता सवा दो साल में ही टूट गयी. 1980 के दशक के उत्तरार्ध में एक बार फिर गैर-कांग्रेसवाद के आधार पर जनता दल बनाया गया, लेकिन वह भी कुछ ही वर्षों के भीतर कई पार्टियों में बंट गया. मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, ओमप्रकाश चौटाला और कमल मोरारका किसी समय इसी जनता दल में हुआ करते थे. व्यक्तिगत अहम और महत्वाकांक्षाओं के कारण जनता दल टूटा था. अब क्या गारंटी है कि ये नयी पार्टी की एकता की राह में रोड़े नहीं अटकाएंगे?

भविष्य के बारे में ऐसी कोई भी गारंटी नहीं दी जा सकती. लेकिन फिलहाल यह स्पष्ट है कि संघ परिवार को जनता परिवार राजनीतिक और वैचारिक चुनौती देने की तैयारी कर रहा है. इनमें चौटाला और देवगौड़ा के अतिरिक्त शेष सभी का संबंध समाजवादी आंदोलन की राममनोहर लोहिया या आचार्य नरेंद्र देव के नेतृत्व वाली धाराओं से रहा है. मोरारका और देवगौड़ा के अलावा ये सभी नेता चरण सिंह के नेतृत्व वाले लोकदल में भी रहे हैं. यह दीगर बात है कि अब ये सभी नेता समाजवाद की विचारधारा के प्रति केवल शाब्दिक प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं, इनके व्यक्तिगत या राजनीतिक व्यवहार में समाजवाद का लेशमात्र भी असर नजर नहीं आता. ऐसे में नयी पार्टी की विचारधारा क्या होगी, यह स्पष्ट नहीं है. इस समय जब नव-उदारवादी आर्थिक विचार वर्चस्व पाते जा रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार भी खुली अर्थव्यवस्था के पक्ष में है, इस पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती वैकल्पिक नीतियां देने की होगी.

बिहार के चुनाव में नयी पार्टी की परीक्षा होगी. वहां जीतन मांझी दलित राजनीति के प्रतीक बनकर उभरने की कोशिश में हैं. बीजेपी के साथ उनकी निकटता अब किसी से छुपी नहीं है. संघ परिवार जिस तरह भीमराव अंबेडकर को अपनाने की कोशिश कर रहा है, उससे लगता है कि बिहार के चुनाव उसकी तात्कालिक चिंता हैं. इसके साथ यह भी सही है कि नरेंद्र मोदी का जादू फीका पड़ता जा रहा है. दिल्ली विधानसभा चुनाव ने तो उसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया लेकिन सिर्फ एक चुनाव के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि पूरे देश में मोदी का जादू खत्म हो गया है. वह अभी भी काफी हद तक बना हुआ है, लेकिन उसके प्रभाव में कमी आयी है. बिहार के चुनाव आते-आते वह और कम होगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है क्योंकि अब जनता के मन में धीरे-धीरे यह भावना घर करती जा रही है कि मोदी अपने चुनावी वादों को पूरा करने के प्रति गंभीर नहीं हैं. उनकी सरकार ने कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर पलटी खायी है और लोग इससे खुश नहीं हैं. न काला धन देश में वापस आया है और न ही महंगाई कम हुई है.

नयी पार्टी के कांग्रेस और वाम दलों के साथ कैसे रिश्ते बनेंगे, यह देखना भी दिलचस्प होगा. इस समय केरल कुछ समस्या पैदा कर रहा है क्योंकि जहां देवगौड़ा की पार्टी विपक्षी वाम-लोकतान्त्रिक मोर्चे में है वहीं शरद यादव की पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ मोर्चे में शामिल है. इसलिए आने वाले दिन राजनीतिक दृष्टि से काफी गहमागहमी भरे होंगे.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार