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विवादों से बेअसर प्रेमचंद

५ सितम्बर २०१३

प्रेमचंद का निधन 1936 में हुआ था. करीब आठ दशक बीत जाने के बाद भी उनके जोड़ का कोई लेखक हिंदी को नसीब नहीं हुआ. बड़े बड़े विवाद उठते हैं लेकिन कलम के जादूगर का एक पन्ना खुलता है और पूरी तस्वीर बदल जाती है.

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तस्वीर: public domain

औपनिवेशिक-सामंती शोषण पर आधारित शासन व्यवस्था के बोझ के तले पिसते हुए उत्तर भारतीय ग्रामीण समाज और उसमें किसान की दुर्दशा की जैसी गहरी समझ उनकी कहानियों और उपन्यासों में मिलती है, वैसी और कहीं नहीं. उनकी कृतियों में जातिभेद और उस पर आधारित शोषण तथा नारी की स्थिति का जैसा मार्मिक चित्रण किया गया है, वह आज भी दुर्लभ है हालांकि उनके बाद जैनेन्द्र, अज्ञेय, अमृतलाल नागर, फणीशवरनाथ ‘रेणु', भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, मोहन राकेश, अमरकांत, निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, शानी और विनोद कुमार शुक्ल जैसे अनेक कहानीकारों और उपन्यास लेखकों ने अपनी रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया. इन रचनाकरों ने नई जमीन तैयार की और शिल्प की दृष्टि से अनेक नए प्रयोग किए लेकिन प्रेमचंद का स्थान कोई भी न ले सका.

वही प्रेमचंद इन दिनों साहित्यिक विवादों में घिर गए हैं और ऐसा लग रहा है कि हाथी और छह अंधों वाली कहानी दुहराई जा रही है. जिस तरह हर अंधे ने हाथी के किसी अंग विशेष को छूकर उसी के आधार पर बताया था कि वह कैसा होता है, उसी तरह इन दिनों प्रेमचंद की अलग-अलग और परस्परविरोधी व्याख्याएं की जा रही हैं. वामविरोधी कमलकिशोर गोयनका, जिन्होंने प्रेमचंद की दुर्लभ रचनाओं को खोजने, उन्हें संपादित करने और प्रेमचंद साहित्य पर शोध करने में अपना पूरा जीवन लगा दिया, उनके ‘हिंदूपन' को रेखांकित कर रहे हैं तो वामपंथी साहित्यकार और आलोचक उन्हें प्रगतिशील बताने के क्रम में लगभग ‘मार्क्सवादी' और ‘कम्युनिस्ट' तक सिद्ध करने में नहीं हिचक रहे. जाहिर है कि यह सब प्रेमचंद की रचनाओं, लेखों और भाषणों से अपने मत को पुष्ट करने वाले उद्धरण देकर ही किया जा रहा है. प्रेमचंद की सहानुभूति समाज के शोषित-उत्पीड़ित-वंचित तबकों के साथ थी. जाति-आधारित उत्पीड़न और शोषण भारतीय समाज में सदियों से चला आ रहा अभिशाप है. प्रेमचंद के साहित्य में ‘ठाकुर का कुआं' और ‘सद्गति' जैसी रचनाएं उस समय अछूत माने जाने वाली जातियों के साथ हो रहे अन्याय और शोषण का दिल दहलाने वाला चित्र प्रस्तुत करती हैं. प्रेमचंद की कहानी ‘सद्गति' पर विश्वप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजित राय ने हिन्दी में अपनी एकमात्र टेलीफिल्म भी बनाई थी. सत्यजित राय ने हिन्दी में केवल दो फिल्में ‘शतरंज के खिलाड़ी' और ‘सद्गति' बनाईं और ये दोनों ही प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित थीं. ये तो पुरानी बात हुई लेकिन इन दिनों ओमप्रकाश वाल्मीकि और धर्मवीर जैसे हिन्दी के नवोदित दलित लेखक और आलोचक प्रेमचंद को ‘दलितविरोधी' सिद्ध करने पर तुले हैं. दिलचस्प यह है कि प्रेमचंद को हिन्दी साहित्य के शिखर से नीचे खींचने की इतनी कोशिशें हो रही हैं और प्रेमचंद हैं कि टस से मस नहीं हो रहे.

जब प्रेमचंद की मृत्यु हुई, उस समय वह केवल 56 वर्ष के थे. इसके पहले के चार दशकों के दौरान एक लेखक और सामाजिक विचारक के रूप में उनका विकास हुआ और विकास की यह प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से अनेक अंतर्विरोधों से भरी हुई थी. शुरू में वह गांधीवादी आदर्शों और आर्यसमाज के समाजसुधार आंदोलन से बहुत प्रभावित थे. सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ और नारी शिक्षा के पक्ष में आर्यसमाज का अभियान उन्हें बहुत भाता था. धीरे-धीरे उनके विचार बदले और जीवन के अंतिम वर्षों में वे काफी हद तक वामपंथी हो गए थे, लेकिन उन पर से पहले के वैचारिक प्रभाव पूरी तरह खत्म हो गए हों, ऐसा भी नहीं था. इसीलिए 1936 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ में हुए प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता करने के दूसरे ही दिन वे आर्यसमाज के एक समारोह में भी पहुंच गए. प्रेमचंद ने हर प्रकार की सांप्रदायिकता का विरोध किया. उन्हें एक या दो उद्धरणों के आधार पर हिंदुवादी या वामपंथी कम्युनिस्ट सिद्ध करना उनकी स्मृति के प्रति अन्याय करना होगा. इन दिनों हिन्दी में यह अन्याय धड़ल्ले से किया जा रहा है.

दलित लेखकों की मूल वैचारिक प्रतिज्ञा है कि दलित जीवन के विषय में केवल दलित ही प्रामाणिक ढंग से लिख सकते हैं क्योंकि केवल उन्होंने ही उस जीवन के अभिशाप को भोगा और अनुभव किया है. ऊंची जातियों में पैदा हुए लेखकों के पास स्वयं का अनुभव नहीं है, केवल देखकर किया हुआ अनुभव है. इस तर्क में कुछ जान जरूर है, लेकिन यह दलित लेखकों की आत्मकथाओं पर अधिक खरा उतरता है क्योंकि वे शुद्ध अनुभव पर आधारित हैं. रचनात्मक साहित्य में अनुभव के अतिरिक्त कल्पना, प्रतिभा और सृजनशीलता की निर्णायक भूमिका होती है और इस क्षेत्र में यह तर्क लागू नहीं होता. यदि वास्तव में अनुभव की ऐसी निर्णायक भूमिका होती तो तोल्स्तोय अन्ना करेनीना जैसे स्त्री चरित्र की सृष्टि न कर पाते और न प्रेमचंद निर्मला की क्योंकि पुरुष होने के कारण स्त्री के विशिष्ट अनुभव तो उनके पास थे नहीं.

आश्चर्य की बात यह है प्रेमचंद की ‘कफन' जैसी कालजयी कहानी को दलित लेखक दलित-विरोधी मानते हैं और प्रेमचंद की दलितों (जिन्हें उनके समय में अछूत कहा जाता है) के प्रति सहानुभूति को ऊंचाई पर बैठकर प्रदर्शित की गई ‘दया' बताते हैं. मार्क्सवादी आलोचक कांतिमोहन ‘प्रेमचंद और दलित विमर्श' नामक अपनी पुस्तक में इस विषय पर विस्तार से विचार करते हैं और कहते हैं कि इस कहानी का विषय दलित जीवन है ही नहीं. उनके मुताबिक प्रेमचंद तो भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की सामाजिक व्यवस्था के हाथों रची अमानवीय स्थिति का चित्रण कर रहे थे. उनका कहना है कि ‘ठाकुर का कुआं' और ‘सद्गति' के दलित पात्रों के विपरीत उनमें जाति व्यवस्था और उसके कारण उत्पन्न सामाजिक भेदभाव की कोई स्वीकृति नजर नहीं आती.

मृत्यु के लगभग अस्सी साल बाद भी प्रेमचंद इतनी विवादों के केंद्र में हैं, इससे एक बात तो सिद्ध होती ही है कि वह आज भी हिन्दी के सर्वाधिक प्रासंगिक लेखक हैं॰

ब्लॉगः कुलदीप कुमार, नई दिल्ली

संपादनः एन रंजन

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