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वेतन पर नहीं, काम पर हो बहस

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महेश झा
४ दिसम्बर २०१५

दिल्ली के विधायकों का वेतन भत्ता बढ़ाने पर हंगामा है. महेश झा का कहना है कि हंगामा वेतन पर नहीं, इस बात पर होना चाहिए कि जनप्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं या नहीं.

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तस्वीर: AP

दिल्ली के विधायकों का वेतन भत्ता बढ़ाने पर हंगामा है. खासकर इसलिए कि वेतन में 400 फीसदी की वृद्धि की गई है. दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं जहां सासंदों का वेतन बढ़ाने पर हंगामा न होता हो. लेकिन हंगामा वेतन पर नहीं, इस बात पर होना चाहिए कि जनप्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं या नहीं.

संविधान जन प्रतिनिधि सभाओं को कानून बनाने का अधिकार देता है. दिल्ली विधानसभा की भी जिम्मेदारी नागरिकों की भलाई के लिए कानून बनाना और सरकार का नियंत्रण करना है. यह जिम्मेदारी विधानसभा के सदस्यों की होती है. आज के जटिल विश्व में वे इस जिम्मेदारी को सिर्फ हाथ उठाकर या पक्ष और विपक्ष में वोट देकर पूरा नहीं कर सकते. विभिन्न मुद्दों पर राय बनाने के लिए उसके बारे में जानकारी की जरूरत होती है और यह समय लेने वाला काम है. अगर इस काम को गंभीरता से लिया जाए तो कोई जन प्रतिनिधि कुछ और काम नहीं कर पाएगा और आजीविका नहीं चला पाएगा. इसलिए विश्व भर में जनप्रतिनिधियों को वेतन देने का चलन है ताकि सिर्फ धनी लोग संसदों के सदस्य न बनें और जन प्रतिनिधित्व में निहित स्वार्थों का बोलबाला न हो जाए.

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महेश झा

इस हिसाब से देखें तो दिल्ली विधानसभा के सदस्यों का 50,000 रुपये का महीने का वेतन बहुत ज्यादा नहीं है. यह तनख्वाह के बैंड तीन में कॉलेज के लेक्चरर या क्लास वन अधिकारी की शुरुआती तनख्वाह से कम है. प्रशासनिक पायदान में विधायकों का दर्जा तय करने में तनख्वाह की अहम भूमिका है, लेकिन विधानसभा को यह भी तय करना होगा कि इस तनख्वाह के लिए विधायक कितना काम करते हैं और दूसरे कर्मचारियों की तरह निर्वाचित सरकारी अधिकारी के रूप में काम करते हैं या नहीं.

आकलन का आधार राज्य या शहर के लोगों की भलाई होनी चाहिए. उनके जीवन यापन की सुविधाएं, उनकी सुरक्षा और उनके भविष्य की रक्षा. अगर दिल्ली को देखें तो इन मानकों पर विधायक खरे नहीं उतरते. शहर समान्य नागरिक सुविधाओं के अलावा यातायात, स्मॉग और लोगों की स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा है. दिल्ली की विधानसभा न तो कानून बना रही है और न ही सरकार पर सही ठंग से नियंत्रण कर रही है.

विधानसभा और उसके सदस्य यदि अपने को कमजोर समझते हैं तो उन्हें अपने हक के लिए लड़ना होगा. एक उदाहरण जर्मनी की संसद है जो यूरोपीय मामलों में सारे फैसलों को स्वीकार करने के बदले जन प्रतिनिधियों के रूप में फैसलों में हिस्सेदारी के हक के लिए लड़ रही है और अदालतों से यह हक पा भी रही है. लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है और जनप्रतिनिधि उसका प्रतिनिधित्व करते हैं.

ब्लॉगः महेश झा