1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

शिक्षा ही कराएगी सारी बेड़ियों से मुक्त

२३ जून २०१५

यूपी के दलित और गरीब परिवार के दो होनहार युवाओं ने आईआईटी परीक्षा पास कर दुनिया को तो बेशक हैरान किया लेकिन अपने ही समाज में वे अब भी अस्वीकार्य हैं. वरना फूल मालाओं की जगह उनका स्वागत पत्थरों से न किया जाता.

https://p.dw.com/p/1Fm2f
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo

इस घटना से अफसोस तो होता है लेकिन भारतीय समाज की सदियों पुरानी जातीय संरचना और उसमें निहित नफरत और वर्चस्व की परतों पर गौर करें तो हैरानी नहीं होती है. दलित और गरीब होना इस देश में अब भी अभिशाप है, इस अभिशाप को काटकर और उसे दूर फेंककर जब राहुल और बृजेश नाम के ये लड़के अपनी प्रतिभा और हौसले की चमक बिखेरते हैं तो अनायास ही वो जातीय दंभ की आंखों में चुभने लगती है.

सम्मानित होकर घर लौट रहे लड़कों पर पत्थर बरसाने की घटना को इस लिहाज से हमारे भारतीय समाज और परिवेश में निहित मान्यताओं और जातीय मनोवृत्तियों के एक प्रतीक के रूप में भी देखना चाहिए. दो गरीब लड़के देश का नाम तो रोशन कर रहे हैं लेकिन वे उस जटिल जातीय संरचना और उसमें पैबस्त नफरत को नहीं मिटा पा रहे हैं जिससे ये देश सदियों से जूझता आ रहा है. इस लिहाज से ये शायद दुनिया की सबसे कठिन परीक्षाओं में मानी जाने वाली आईआईटी प्रवेश परीक्षा से भी बड़ी परीक्षा उनके लिए और इस समाज के उपेक्षितों, वंचितों, दलितों और गरीबों के लिए हो गई है.

लड़कों की कामयाबी और उन पर हमले की नीयत से फेंके गए पत्थरों की घटनाओं से तीन बातें सहज ही खुलती हैं. एक तो ये कि आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के अवरोध की दीवार अब कमजोर पड़ रही है, दूसरी ये कि जातीय तनावों और जातिवादी वर्चस्व की दीवार जस की तस बनी हुई है. एक तीसरी बात जो हम इसमें गौर करने पर देख सकते हैं वो ये है कि शिक्षा सारे बाड़े तोड़ सकती है बशर्ते शिक्षा का माहौल और उसका ढांचा आप वैसा जनोन्मुख और प्रगतिवादी बनाएं.

आप जातीय आग्रहों को धीरे धीरे मिटा सकते थे अगर आप शिक्षा और जागरूकता की एक सार्वभौम योजना रखते. कागजों और नीतियों में तो वो है लेकिन अमल में वो नहीं है. शिक्षा को जनजन तक पहुंचाने का नारा सरकारी अभियानों में दिखता तो है, नामांकन की दरें देखकर कोई भी इतरा सकता है, ड्रॉप आउट की दरें भी कम हुई हैं, प्राइमरी शिक्षा का दायरा बढ़ा है और उच्च शिक्षा के लिए नए दरवाजे खुले हैं लेकिन इतना सब होने के बावजूद एक देशव्यापी शैक्षिक चेतना का अभाव क्यों नजर आता है.

आंकड़ों से अलग वास्तविकता क्यों हैं और क्यों आज भी गांवों और शहरों के बीच, लड़के और लड़कियों के बीच, दलितों और गैर दलितों के बीच, अमीर और गरीब के बीच, मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के बीच तमाम खाइयां फैली हुई हैं जिनमें शैक्षिक असमानता की खाई भी एक है. शिक्षा व्यवस्था की एक बड़ी कमजोरी यही है कि वो समाज में फैली कुरीतियों, अंधविश्वासों, सड़ी गली मान्यताओं और जातीय श्रेष्ठताओं का मुकाबला नहीं कर पाई है यानी कुल मिलाकर एक बराबरी वाले समाज के निर्माण में हमारी शिक्षा प्रणाली अब भी विफल है, डंका चाहे कितना ही जोर से बजा लें.

लेकिन इन्हीं विचलन भरी स्थितियों के बीच ये एक खामोश क्रांति तो है ही जिसका सपना डॉ भीमराव अंबेडकर ने देखा था. वे शिक्षा को ही दलितों की मुक्ति का अंतिम हथियार मानते थे. आज ये बच्चे सदियों की जकड़बंदियों से आजाद होकर एक नये आकाश को निहार पा रहे हैं तो जाहिर है इसमें डॉ अंबेडकर की वैचारिक लड़ाई का भी बुनियादी योगदान है. वंचित और बेदखल कौमें नई करवट लेने लगी हैं.

राहुल और बृजेश को अपनी मंजिल मिल गई है. ऐसे बहुत से राहुल और बहुत से बृजेश, इस महादेश की संतानें हैं. उन्हें भी अपना हक चाहिए. शिक्षा व्यवस्था को सामाजिक बदलाव के साथ जोड़कर ही वंचितों को देश के विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बनाया जा सकता है. नई पीढ़ी को आगे आकर वे सारे बंधन, वे सारी खुराफातें तोड़नी होंगी जो अच्छी शिक्षा और अच्छी दुनिया की राह में पत्थर बिछाती हैं.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी