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संगीत के माध्यम से खुद की तलाश

२९ मार्च २०१४

प्रसिद्ध सितारवादक उस्ताद महमूद मिर्जा खास दिल्लीवाले हैं, लेकिन पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से ब्रिटेन में रह रहे हैं. उनका कहना है कि संगीत सिर्फ मनोरंजन की चीज नहीं है, यह अपनी तलाश है.

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Ustad Mahmud Mirza
तस्वीर: privat

मात्र छह साल की उम्र में महमूद मिर्जा के मामा उस्ताद हैदर हुसैन ने, जो जयपुर-सेनिया घराने के जाने-माने प्रतिनिधि थे, उन्हें सितार की तालीम देना शुरू कर दिया था. केवल चौदह वर्ष की आयु में आकाशवाणी के स्टाफ में शामिल होने वाले वह सबसे कम उम्र के संगीतकार थे. मामा के असमय निधन के बाद उन्होंने किराना घराने के मशहूर संगीतशास्त्री पंडित जीवनलाल मट्टू से शिक्षा ग्रहण की. 1960 के दशक में थोड़े समय के लिए महमूद मिर्जा हिन्दी फिल्म जगत से भी जुड़े रहे और उनके सितार के मनमोहक टुकड़े ‘छोड़ दो आंचल जमाना क्या कहेगा' (फिल्म: पेइंग गेस्ट), ‘तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नजर न लगे, चश्म-ए-बद दूर' (फिल्म: ससुराल) और ‘पवन दीवानी, न माने न माने' (फिल्म: ‘डॉक्टर विद्या') जैसे सदाबहार गीतों में सुने जा सकते हैं. रागसंगीत की शुद्धता के प्रति उनका आग्रह उनके उत्कृष्ट एवं अत्यंत परिष्कृत सितारवादन की विशेषता है. इन दिनों उस्ताद महमूद मिर्जा दिल्ली आए हुए हैं. उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश:

ब्रिटेन में इन दिनों भारतीय शास्त्रीय संगीत का परिदृश्य कैसा है? एक जमाने में तो वहां बहुत गतिविधियां होती थीं.

इन दिनों इन गतिविधियों में काफी कमी आ गई है. आर्थिक संकट और किफायत के अभियान का असर भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य के कार्यक्रमों पर भी पड़ा है. दूसरे अब ऑडिटोरियम का किराया बहुत बढ़ गया है. फिर भी कार्यक्रम होते हैं, लेकिन पहले के मुकाबले काफी कम.

लेकिन हमारे संगीतकार तो काफी विदेश जाते रहते हैं.

आप सही कह रहे हैं. लेकिन उनके सभी कार्यक्रम ऑडिटोरियम में नहीं होते. कुछ संगीतप्रेमियों के घरों में और स्कूल-कॉलेजों में भी होते हैं. बहुत से कलाकार अमेरिका और यूरोप के अन्य देशों में भी जाते हैं. कुछ साल पहले तक स्पेन में बहुत अच्छा माहौल बन गया था हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का. मैंने ही एक साथ नौ कार्यक्रम दिये थे. लेकिन अब वहां भी आर्थिक कारणों से वह बात नहीं रही.

ब्रिटेन की कला परिषद की क्या भूमिका रहती है?

कला परिषद अभी भी अपनी भूमिका निभा रही है और अपने वित्तीय संसाधनों के मुताबिक हिंदुस्तानी संगीत के प्रोत्साहन के लिए खर्च करती है. लेकिन पहले की तुलना में इसमें भी काफी कमी आई है.

Ustad Mahmud Mirza
तस्वीर: privat

आप हर वर्ष भारत आते हैं. यहां कैसा परिदृश्य देखने को मिलता है?

यहां की स्थिति बिलकुल अलग है. आप दिल्ली को ही ले लीजिये. यहां शायद ही कोई दिन जाता हो जब कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई शास्त्रीय संगीत या नृत्य का कार्यक्रम न हो रहा हो. किसी-किसी दिन तो एक नहीं, कई कार्यक्रम हो रहे होते हैं और लोगों को अफसोस होता है कि केवल एक में ही जा पाएंगे और बाकी छूट जाएंगे. नए-नए प्रतिभाशाली कलाकार भी उभर कर आ रहे हैं और इससे संगीत के भविष्य के बारे में आशा बंधती है. यहां का परिदृश्य तो बहुत जीवंत और गहमागहमी वाला है. #gallery#

आप ब्रिटेन की कला परिषद के काम करने के तौर-तरीकों से परिचित हैं. हमारे यहां की संगीत नाटक अकादमी और अन्य अकादमियां कैसी हैं?

हमारी संस्थाएं भी अच्छा काम कर रही हैं. देखिये, कला के मूल में व्यक्ति है. वही कला का सर्जक है. कलाकार को केंद्र में रखकर ही सारी गतिविधियां होनी चाहिए. सरकार कुछ अच्छा करना चाहती है, उसकी नीतियां भी अच्छी हैं. सारा दारोमदार इस बात पर है कि आप सही व्यक्ति को प्रोत्साहन देते हैं या नहीं.

युवा कलाकारों के लिए आप क्या कहना चाहेंगे?

देखिये, शास्त्रीय संगीत में बहुत लंबे समय तक तालीम और प्रशिक्षण की जरूरत होती है. पहले सीखना होता है, फिर सीखे हुए की साधना करनी होती है. इसमें शॉर्ट-कट नहीं है. इसलिए हर कलाकार को, चाहे वह जूनियर हो या सीनियर, रागसंगीत की शुद्धता बरकरार रखते हुए हमारी परंपरा के सर्वस्वीकृत मूल्यों और नियमों पर चलना चाहिए. पारंपरिक तरीके से रियाज करना, अपने भीतर उतर कर अपने-आपको तलाशना, और फिर अपनी खुद की बात को संगीत के जरिये व्यक्त करना, ये सारी बातें किसी भी कलाकार के लिए जरूरी है. इसीलिए संगीत के साथ साधना का शब्द जुड़ा है क्योंकि यह एक अर्थ में बिलकुल वैसा ही काम है जैसा सूफी संत या ऋषि-मुनि करते हैं. यानि अपनी तलाश. संगीत सिर्फ मनोरंजन की चीज नहीं है.

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और दूसरे किस्म के संगीत को मिलाकर फ्यूजन वगैरह की कोशिश की जा रही है. इसे आप कैसे देखते हैं?

प्रयोग हर काल में हुए हैं और होते रहेंगे. इसमें कोई हर्ज भी नहीं है. लेकिन यह टिकने वाली चीज नहीं है. टिकने वाली चीज हमारे शास्त्रीय संगीत की अपनी विशिष्ट परंपरा ही है. जब तक कलाकार उसे समृद्ध करने में लगे हैं, तब तक किसी किस्म की चिंता नहीं करनी चाहिए.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा