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संपादकीय: यूरोप में शरणार्थियों का सैलाब

अलेक्जांडर कुदाशेफ/आईबी२८ अप्रैल २०१५

हर दिन हजारों शरणार्थी यूरोप का रुख कर रहे हैं. डॉयचे वेले के मुख्य संपादक अलेक्जांडर कुदाशेफ का कहना है कि एक नए जीवन की उम्मीदों के आगे भूमध्य सागर के खतरे छोटे पड़ रहे हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/C. Montanalampo

वसंत आ गया है और इसके साथ ही शरणार्थियों का यूरोप आना भी शुरू हो गया है. इसके कई कारण हैं, गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी. और फिर तानाशाही, यातनाएं, उत्पीड़न और अत्याचार. कहीं गृह युद्ध छिड़ा है तो कहीं जंग. और ऐसे नाकाम राज्य भी हैं जहां गुंडाराज चल रहा है.

तकलीफदेह जीवन और नाउम्मीदी के कारण लोग अपना घर छोड़ने पर मजबूर हैं. वे विदेश में एक नए जीवन की आस में पहुंचते हैं, इस उम्मीद में कि किस्मत बदल जाएगी. इरिट्रिया, सोमालिया, लीबिया, इराक, अफगानिस्तान, ऐसे कई देशों से लोग यूरोप आते हैं. और इन देशों के अंदर ही जो पलायन हो रहा है, उसकी तो बात ही छोड़ दीजिए.

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डॉयचे वेले के मुख्य संपादक अलेक्जांडर कुदाशेफ

अमानवीय व्यापार

करीब पांच करोड़ शरणार्थी भटक रहे हैं. उनकी कहानी खतरों से भरी है और कई बार तो उनकी मौत के साथ खत्म होती है. वे खुद इस रास्ते पर नहीं निकलते हैं, बल्कि अपने सपनों के देश तक पहुंचने के लिए मानव तस्करों पर निर्भर होते हैं. ये रास्ते कभी भी सीधे सरल नहीं होते. सीरिया से तुर्की, फिर अल्जीरिया और लीबिया के रेगिस्तान से होते हुए समुद्र तक पहुंचते हैं जहां उन्हें अपने सपनों के महाद्वीप यूरोप आने के लिए जहाज मिलता है. आधुनिक जगत की यह गुलामी अब अरबों डॉलर के व्यापार में बदल चुकी है. यह बर्बर है और अमानवीय भी.

और फिर जब ये शरणार्थी यूरोप पहुंच जाते हैं तो उन्हें अस्थायी पनाहगाहों में ठूंस दिया जाता है. कई बार उन्हें चिकित्सीय सहायता दी जाती है और बहुत बार तो थोड़े ही समय में वापस भेज दिया जाता है. या फिर ये लोग गायब हो जाते हैं और गैरकानूनी तरीके से अपना और अपने परिवार का पेट पालने की कोशिश करते हैं. कभी मजदूरी तो कई बार उन्हें अनैतिक काम भी करने पड़ते हैं.

बड़ी नाकामयाबी

कुछ लोगों को अपने परिवारजनों से मदद मिल जाती है, तो कई बार स्वयंसेवी उनकी देखभाल में लग जाते हैं. लेकिन बहुत से ऐसे हैं जो सरकार पर ही शरण के लिए निर्भर होते हैं. और बहुत, बहुत ही सारे लोग ऐसे हैं जिन्हें गरीबी और नाउम्मीदी की दुनिया में लौट जाना पड़ता है. यह सच है कि हर किसी की यूरोप में आकर रह जाने की आस पूरी नहीं हो पाती. लेकिन फिर भी उत्तरी अफ्रीका के तट पर सैकड़ों हजारों लोगों के लिए एक ही बात मायने रखती है कि यूरोप के लिए अगला जहाज कब रवाना होगा. उनकी यही चिंता है कि कैसे यूरोप पहुंचेंगे और कैसे रास्ता काटेंगे.