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संरचनाओं में सुधार की ज़रूरत

३ मई २०१०

यूरो की स्थिरता बनाए रखने के लिए ग्रीस की मदद करना लाज़मी था. लेकिन भविष्य में कहीं दूरगामी क़दम उठाने पड़ेंगे. क्रिस्टोफ़ हासेलबाख की समीक्षा

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

अभी चंद ही दिन पहले जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने कहा था कि ग्रीस की वित्तीय मदद कतई ज़रूरी नहीं है, वह तो आख़िरी चारा है. कितनी जल्दी यह आख़िरी चारा आ गया. अब दांत पीसते हुए ग्रीस की मदद करनी पड़ेगी.

ज़ाहिर है कि नाराज़गी फैली हुई है. ग्रीस में कमाई से ज़्यादा खर्च होता रहा है, आंकड़ों से छेड़छाड़ करते हुए वह यूरो मुद्रा संघ का सदस्य बना है. अब दूसरों को उसकी मदद करनी है. यह आयरलैंड, स्पेन या पुर्तगाल के लिए कैसी मिसाल बनेगी?

लंबे समय तक यूरोपीय आयोग व सदस्य देश आंख मूदकर देखते रहे. ग्रीस का कर्ज़ बढ़ता रहा, और ख़ासकर जर्मनी के माल ख़रीदे जाते रहे. जबकि यूरो की स्थिरता के लिए जर्मनी को सोचना चाहिए था, उसकी अर्थनीति के लिए यह स्थिरता बेहद महत्वपूर्ण है.

लेकिन बचाव का पैकेज काफ़ी नहीं है. संरचनाओं में सुधार अगर न हो, तो यह अगले संकट को न्यौता है. वित्तीय बाज़ार पर बेहतर नियंत्रण का क्या हुआ? अब भी चंद रेटिंग एजेंसी समूची राष्ट्रीय अर्थनीति का वारा-न्यारा किए जा रही हैं. करदाताओं के धन से बैंकों का बचाव किया जा रहा है, ताकि उनकी सट्टेबाज़ी चलती रहे. लगता है कि वित्तीय जगत की लॉबी अब भी पहले की तरह सक्रिय है.

लेकिन यूरो मुद्रा के क्षेत्र में भी सुधार ज़रूरी हैं. मुद्रा संघ की स्थापना आर्थिक से ज़्यादा एक राजनीतिक निर्णय थी. उसकी पूरी धारणा अच्छे समय के लिए बनी थी. अब लंबे समय तक जारी रहने वाले तूफ़ानी दौर में कोई भी स्थिरता के मापदंडों की परवाह नहीं कर रहा है. आने वाले समय में यूरो मुद्रा के देशों के बीच सूचनाओं के आदान प्रदान में बेहतरी ज़रूरी है, ताकि उभरते संकटों से निपटा जा सके. इसके अलावा आर्थिक नीतियों के बीच समन्वय करना होगा. यूरो मुद्रा से किसी देश को निकालना संभव नहीं है, उसके बारे में भी सोचना पड़ेगा.

वित्तीय संकट के पहले दौर से यूरोपीय संघ काफ़ी अच्छी तरह निपट सका है, क्योंकि उसके क़दम समन्वित थे. इस अनुभव से सीख लेनी पड़ेगी.

लेखक: क्रिस्तोफ़ हासेलबाख, ब्रसेल्स

संपादन: महेश झा