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संसद में महिलाओं का आरक्षण जरूरी

१३ मई २०१४

भारत में संसद के चुनाव के लिए नौ चरणों में चला मतदान खत्म हो गया. महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों का आरक्षण करने की घोषणा के बावजूद बड़े दलों ने इतने महिला उम्मीदवार खड़े करने की भी हिम्मत नहीं दिखाई.

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तस्वीर: DW/J. Sehgal

2014 के लोक सभा चुनाव में लगभग आधी आबादी यानि महिला मतदाताओं को लुभाने में कोई भी पार्टी पीछे नहीं रहीं. कई राजनीतिक दलों ने महिला सशक्तिकरण, लैंगिक समानता कायम करने, बेहतर सुरक्षा और रोजगार मुहैया करने जैसे वादे जरूर किए लेकिन महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा चुनाव प्रचार के दौरान उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा. हालांकि बीजेपी के नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के राहुल गांधी ने अपने भाषणों में महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण की बातें की हैं लेकिन इसके लिए कोई ठोस योजना नहीं दी है. चुनावों में महिलाओं को उम्मीदवार बनाने में सब कंजूसी कर गये.

पिछले चुनावों की ही तरह इस आम चुनाव में महिला उम्मीदवारों की संख्या काफी कम रही. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे प्रमुख बड़े दलों ने भी उम्मीदवारी में महिलाओं को दस प्रतिशत से अधिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया. उसमें भी जिन महिलाओं को टिकट दिए गए हैं, उनमें या तो वे हैं जो सालों सांसद रही हैं और लंबे समय से राजनीति में सक्रिय हैं या किसी नेता की पत्नी, बेटी, या रिश्तेदार हैं, जिनका राजनीतिक परिवारों से किसी किस्म का ताल्लुक है या फिर वे मशहूर फिल्मी हस्ती हैं.

2009 के आम चुनावों के बाद भी लोकसभा में 543 सदस्यों में सिर्फ 58 महिलाएं थी. चुनाव में महिला उम्मीदवारी की इतनी निराशाजनक तसवीर और संसद में मात्र सांकेतिक उपस्थिति के पीछे सबसे पहले तो सामाजिक व्यवस्था जिम्मेदार हैं, जहां महिलाओं को दूसरे दर्जे का समझा जाता है और उन्हें घर के काम काज और बच्चों के पालन पोषण तक ही सीमित रखा जाता है. दूसरी ओर यह धारणा जिम्मेदार है कि राजनीति सिर्फ पुरुषों का क्षेत्र है. आम तौर पर यह तर्क दिया जाता है कि महिलाएं राजनीति नहीं समझती हैं, वे वोट नहीं ला सकती, चुनाव अभियान के लिये धन या अन्य संसाधन नहीं जुटा सकती और चुनाव नहीं जिता सकतीं.

इतना ही नहीं मतदाता भी कई पूर्वाग्रहों के शिकार हो जाते हैं. बहुतों को यह लगता हैं कि राजनीति में महिलाएं बड़े फैसले लेने में या नीतियां बनाने में सक्षम नहीं होंगी. विडंबना यह है कि ये बातें पुरुष उम्मीदवारों को चुनते वक्त नहीं देखी जातीं. महिलाओं के प्रति इस मानसिकता को बदलने के लिये शिक्षा व जागरूकता तो जरुरी है ही, लेकिन सबसे अहम महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना है. जिस तरह का रवैया पिछले सालों में केंद्र और राज्यों में सक्रिय पार्टियों ने दिखाया है, उसमें यह संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण करके ही संभव हो पाएगा.

ग्रामीण क्षेत्रों में इसका एक सफल उदाहरण दिखता है. संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अंतर्गत पंचायतों और शहरी निकायों में सभी स्तरों एक तिहाई पद पर महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया है. कई राज्यों में तो गावों की पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दी गई है. यह कदम काफी असरदार साबित हुआ है. इसके चलते महिलाओं का स्थानीय स्वशासन और पंचायतों के काम काज में योगदान काफी बढ़ा है.

कांग्रेस, बीजेपी और वामपंथी पार्टियों ने संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की हिमायत की है. अपने घोषणा पत्रों में भी उन्होंने इस मुद्दे को प्रमुखता दी है. लेकिन फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि ये पार्टियां वाकई महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढ़ाने के लिये संजीदा हैं. अगर देश की बड़ी पार्टियां इस मुद्दे को गंभीरता से लेतीं तो इस चुनाव में किसी कानूनी बाध्यता का इंतजार किए बिना ज्यादा महिलाओं को टिकट दे सकती थीं और मिसाल कायम कर सकती थीं.

ब्लॉग: दिशा उप्पल

संपादन: महेश झा