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संस्कृति की हलचलों का साल 2015

३० दिसम्बर २०१५

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में ही जानीमानी लेखिका नयनतारा सहगल ने आगाह किया था कि देश खतरनाक रास्ते पर है, अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले बढ़ गए हैं. कौन जानता था कि उनकी ये बात पूरे साल देश को आंदोलित करती रहेगी.

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Jaipur Art Summit Indien Siddhartha Karawal
तस्वीर: Anish Ahluwalia

2015 का साल, सबसे ज्यादा अगर याद रखा जाएगा तो सांस्कृतिक उथलपुथल के लिए. अर्थव्यवस्था और राजनीति से अधिक सुर्खियों में थी संस्कृति. ये संस्कृति थी असहिष्णुता और सहिष्णुता की, हिंसा के सामने शांति की, बीफ के बरक्स बहस और अभिव्यक्ति पर अंकुश की. साल बीतते बीतते ये रिपोर्ट भी आ गई कि दादरी में सांप्रदायिक भीड़ ने बीफ़ होने के जिस उन्माद में भारतीय वायुसेना में एक युवा अफसर के पिता मोहम्मद अखलाक को मार डाला था वो दरअसल बीफ नहीं बकरे का गोश्त था. ये वारदात भारत की बहुसंस्कृति और सहिष्णु देश की छवि पर एक गहरी चोट थी.

गाय और मांस की इस उत्तेजना के बीच अभिव्यक्ति की आजादी पर हमलों की वारदातें साल भर सामने आती रहीं. सबसे पहले सीपीआई के मराठा नेता गोविंद पानसरे और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी जैसे तर्कवादियों और एक्टिविस्टों की हत्याओं से लोग स्तब्ध रह गए. तमिल कथाकार पेरुमल मुरुगन ने हिंदू कट्टरपंथियों से मिले अपमान और धमकियों के बाद कह दिया कि लेखक मुरुगन की मृत्यु हो गई है, अब वह सिर्फ एक अध्यापक है. हमलों और हत्याओं के प्रतिरोध में कहानीकार उदयप्रकाश ने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया. इसके बाद दादरी कांड हो गया तो मानो संस्कृति, समाज और साहित्य की चूलें हिलने लगीं. फिर तो एक के बाद एक विभिन्न भारतीय भाषाओं के 40 से अधिक लेखकों ने अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरु किए. शुरुआती लेखकों में नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, मनमोहन, काशीनाथ सिंह जैसे नाम शामिल थे.

चुनिंदा फिल्मकारों सईद मिर्जा, आनंद पटवर्धन, देबाशीष बनर्जी और गोविंद निहलानी आदि ने भी प्रतिरोध के समर्थन में अपने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार लौटा दिए. प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय ने भी पटकथा के लिए मिला अपना राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाया. प्रमुख वैज्ञानिक पीएन भार्गव ने पद्मभूषण वापस कर दिया. अभिव्यक्ति की आजादी और असहिष्णुता पर अपने बयानों से सबसे ज़्यादा ध्यान खींचा भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी, भारतीय मूल के ही विख्यात ब्रिटिश चित्रकार अनीश कपूर और अंग्रेजी लेखक विक्रम सेठ ने. जानेमाने इतिहासकारों और वैज्ञानिकों ने राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजा. अंतरराष्ट्रीय साहित्य की नामी संस्था पेन इंटरनेशनल ने इस प्रतिरोध को अपना समर्थन दिया.

हालांकि इसके समांतर सरकार समर्थक कलाकार भी मैदान में कूदे. इनकी अगुवाई जानेमाने फिल्म अभिनेता अनुपम खेर ने की. लेकिन फिल्मी गलियारे से भूचाल तब उठा जब बॉलीवुड स्टार शाहरुख खान ने कहा कि देश में असहिष्णुता का माहौल है और आमिर खान ने अपनी पत्नी के हवाले से कुछ ऐसी ही आशंका जाहिर की. बीजेपी समर्थकों की जमात उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गई और उन पर चौतरफा हमला बोल दिया.

संस्कृति की दुनिया में 2015, सरकार और सत्ता के अहंकारी रवैये के लिए भी याद किया जाएगा. जिसका एक प्रमुख शिकार बना देश का शीर्ष फिल्म ट्रेनिंग संस्थान, एफटीटीआई जिसमें अध्यक्ष पद पर विवादास्पद टीवी एक्टर गजेंद्र चौहान की नियुक्ति की गई. इसके खिलाफ एफटीटीआई के छात्रों ने एक लंबा आंदोलन चलाया. फिल्म निर्देशक और मोदी के चुनाव प्रचार के लिए गीत बनाने वाले पहलाज निहलानी को फिल्म सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया. इसी तरह शिक्षा, इतिहास और संस्कृति के उच्च संस्थानों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई लोगों की नियुक्ति भी विवादों में रहीं.

अभिव्यक्ति पर हमले थमे नहीं. एक राहत जरूर आई आईटी एक्ट की विवादास्पद 66ए धारा को हटाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के रूप में. लेकिन इसी बीच मशहूर पाकिस्तानी गायक गुलाम अली के मुंबई कार्यक्रम को कट्टरपंथियों की चेतावनी की वजह से रद्द करना पड़ा. यहीं पर पूर्व पाकिस्तानी विदेश मंत्री कसूरी की किताब के विमोचन के मौके पर सुधींद्र कुलकर्णी पर स्याही भी फेंकी गई. पिछले दिनों तमिल लोक कवि एस कोवान पर देशद्रोह का आरोप ठोंक दिया गया क्योंकि वो सरकार विरोधी गाने गा रहे थे.

शाहरुख के बयान की गाज उनकी फिल्म “दिलवाले” पर गिरी जिसके खिलाफ प्रदर्शन हुए. कुछ ऐसा ही सुलूक “बाजीराव मस्तानी” के साथ किया गया क्योंकि उसमें कुछ दृश्य कथित रूप से पेशवा आचार के अनुकूल नहीं लग रहे थे. हिंदी फिल्मों में पहले “तनु वेड्स मनु रिटर्न्स” और “पीकू” ने धमाल किया. फिर बारी आई “बाहुबली” और “बजरंगी भाईजान” की. “तमाशा” को भी लोगों ने पसंद किया. लेकिन संस्कृति की दुनिया में साल खत्म होते होते एक तमाशा और हुआ. गाय फिर विवादों में लौटी. जयपुर के एक कला आयोजन में एक कलाकार ने प्लास्टिक की गाय बनाकर उसे हवा में लटका कर पर्यावरण की चिंता करता इंस्टॉलेशन पेश किया तो उसे हिरासत में ले लिया गया और आयोजकों को जलील किया गया.

हिंदी साहित्य के लिए एक तरफ ये समाज में उतरने की एक नई करवट का साल था तो गहरा शोक भी ये साल दे दे गया. लंबी बीमारी और अदम्य जिजीविषा के बाद हिंदी के वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल नहीं रहे. अपनी ही तरह के जनकवि और छात्रों-एक्टिविस्टों में लोकप्रिय रमाशंकर विद्रोही का निधन हुआ. फिल्मी दुनिया में पहले नेत्रहीन संगीतकार रवीन्द्र जैन और अपने दौर की सिने तारिका साधना नहीं रहीं.

भारत के पिकासो कहे जाने वाले प्रख्यात पेंटर एमएफ हुसैन का ये जन्मशती वर्ष भी था लेकिन सांस्कृतिक झंझावात में किसी को अपने इस महानायक की याद नहीं आई. लेकिन अंततः राहत ये रही कि कट्टरपंथियों की समाज को घिनौने ध्रुवीकरण में झोंकने की कोशिश कामयाब नहीं हो सकी. क्योंकि देश की बहुलतावादी संस्कृति लाख घायल होकर भी मिटती नहीं, कायम रहती है और अपने जख़्मों को आप सोखते रहने की उसमें एक घनीभूत विलक्षणता है.

ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी