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समाज

सच्ची स्वायत्तता को तरसते उच्च शिक्षा संस्थान

शिवप्रसाद जोशी
२७ मार्च २०१८

भारत सरकार ने जेएनयू जैसे देश के प्रमुख उच्च शिक्षा संस्थानों को स्वायत्त करने की घोषणा की है. इस फैसले के कई निहितार्थ हैं. सरकार, फंडिंग से तो अपना पिंड छुड़ा रही है लेकिन राजनीतिक और वैचारिक वर्चस्व नहीं छोड़ना चाहती.

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Aligarh Muslim University in Aligarh, Indien
तस्वीर: imago/Indiapicture

पिछले सप्ताह केंद्र सरकार ने एलान किया था कि वो देश के 60 विश्वविद्यालयों को पूर्ण या पूर्णता से कुछ कम स्वायत्तता दे दी जाएगी. जिसका अर्थ ये है कि अब तक उनकी वित्तीय, अकादमिक और प्रशासनिक निगरानी रखने वाली संस्था, यूजीसी का उन पर कोई नियंत्रण नहीं रहेगा. इस स्वायत्तता सूची में जेएनयू, बीएचयू और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी समेत पांच केंद्रीय विश्वविद्यालय, 24 राज्य विश्वविद्यालय, 21 डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी और आठ कॉलेज शामिल हैं. स्थानों को दाखिले, पाठ्यक्रम, भर्ती से लेकर आधारभूत ढांचे के विकास के लिए सरकार की ओर नहीं देखना होगा. वे सारे निर्णयों के लिए स्वतंत्र होंगे.

स्वायत्तता का पैमाना नैक की ग्रेडिंग के आधार पर तय किया गया है. यानी नेशनल असेसमेंट ऐंड एक्रिडिटेशन काऊंसिल (नैक) की 3.51 से ज्यादा की रेटिंग वाले संस्थानों को श्रेणी-एक में रखा गया है यानी उन्हें अधिकतम स्वायत्तता हासिल होगी. वे नये कोर्स, नये सेंटर, नये कैंपस और रिसर्च पार्क आदि ला सकते हैं, अन्य विश्वविद्यालयों से गठजोड़ कर सकते हैं, यूजीसी की अनुमति के बिना ही विदेशी फैकल्टी की नियुक्ति कर सकते हैं और विदेशी छात्रों को दाखिला दे सकते हैं. शर्त यही है कि वे सरकार से किसी तरह के फंड की मांग न करें. एक्सटर्नल रिव्यू के नाम पर वे यूजीसी को एक रिपोर्ट भेज देंगे और इसी से उनका काम हो जाएगा. श्रेणी-दो के तहत रखे गये संस्थानों के प्रति उदारता तो कमोबेश श्रेणी एक जैसी ही रहेगी, लेकिन जरूरत पड़ी तो श्रेणी एक के प्रतिनिधि उनकी समीक्षा के लिए जा सकते हैं. अब ये संस्थानों के ऊपर संस्थानों को ही बैठाने जैसा है- उनकी दया पर निर्भर. इसीलिए कुछ विद्वानों ने स्वायत्तता की इस व्यवस्था को खाप पंचायत जैसा कहा है. लेकिन इस खाप का निर्णायक स्वामित्व यूजीसी यानी केंद्र का ही होगा और वो जब चाहे किसी संस्थान की बांहे मरोड़ सकती है. वित्तीय रूप से उसे छुटकारा मिल गया है लेकिन धौंस में कोई कमी नहीं रखी गई है.

देश में इस समय 864 विश्वविद्यालय हैं. जिनमें से करीब 300 प्राइवेट यूनिवर्सिटियां हैं. उच्च शिक्षा में करीब दो करोड़ 96 लाख छात्र हैं जिनमें से 1.6 करोड़ लड़के और 1.3 करोड़ लड़कियां है. इनमें से करीब 12 फीसदी दूरस्थ शिक्षा से पढ़ाई कर रहे हैं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ऑल इंडिया हाइअर एजुकेशन सर्वे ने जनवरी में जो आंकड़ा जारी किया था उसके मुताबिक उच्च शिक्षा में नामांकित छात्रों की दर बढ़ी है. 2016-17 में ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो (जीईआर) 25.2 %  आंका गया जो 2015-16 के 24.5 % से कुछ अधिक है. विदेशी छात्रों की आमद में बहुत मामूली सुधार हुआ. 2015-16 में 45,424 विदेशी छात्रों ने दाखिला लिया था तो 2016-17 में ये संख्या बढ़कर 47,575 ही हो पाई.

पूछा जा सकता है कि स्वायत्त ढंग से काम करने की संस्थानों की मुराद पूरी तो हो रही है- फिर क्या दिक्कत है? लेकिन ये ‘स्वायत्तता' खुद सरकार के लिए वित्तीय दायित्व से मुक्ति का रास्ता  लगती है. अभी जब कई सरकार से वित्त पोषित संस्थान अपने बुनियादी ढांचे को सुधारने की ही लड़ाई लड़ रहे हैं, ऐसे में उन्हें ये कहना कि अब आप स्वायत्त हैं, उनके लिए इधर कुआं उधर खाई वाली नौबत है. पहले जेएनयू में एमफिल पीएचडी की सीटों में भारी कटौती, हाजिरी की अनिवार्य लिखित बाध्यता, अध्यापकों की रुकी हुई भर्तियां, और अब ये "स्वायत्तता.” 

इसका असर दबे कुचले वर्गों के छात्रों के लिए निर्धारित फंड पर भी पड़ेगा, जैसा पिछले दिनों टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस के छात्र आंदोलन में देखा गया. सब्सिडी वाली शिक्षा का छात्रों का अधिकार देखते ही देखते उनकी आंखों के सामने छीना जा रहा है. फीस वृद्धि एक रास्ता है लेकिन महंगी पढ़ाई हर किसी के बस में नहीं. दूसरा रास्ता है किसी निजी कंपनी या कॉरपोरेट की छत्रछाया. लेकिन ये छाया मुफ्त तो मिलेगी नहीं. बहुत से समझौते संस्थानों को करने पड़ेंगे. सरकारी शैक्षणिक संस्थानों के कॉरपोरेट अधिग्रहण का रास्ता साफ होगा. दाखिलों, नियुक्तियों, तमाम अकादमिक मामलों में, और तो और छात्र अधिकारों पर भी असर पड़ेगा. मिसाल के लिए जेएनयू या किसी अन्य यूनिवर्सिटी में ही कह दिया जाए, फंड तभी मिलेगा जब वहां छात्र राजनीति पर रोक लगा दी जाए. तो सोचा जा सकता है कि एक स्वस्थ जागरूक और चेतना संपन्न लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ये कैसा आघात होगा. 

एफटीटीआई, जेएनयू, बीएचयू से लेकर देश भर में विभिन्न संस्थानों, कॉलेजों में की हाल की तनातनी, हिंसक टकराव, अभिव्यक्ति की आजादी, छात्र हितों की अनदेखी, उन पर हमले और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर उग्रताएं, दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों का उभार, लिबरल स्पेस में कटौती, लड़कियों पर बढ़ते हमले- ये सारे मुद्दे ऐसे हैं जो उच्च शिक्षा के परिदृश्य को डरावना और नागरिक विरोधी बना रहे हैं. एक ओर इन 60 संस्थानों में कई ऐसे हैं जिन्हें सब्सिडी की दरकार है तो कई ऐसे भी हैं जो मुनाफे में हैं और निजी सेक्टर से हैं. उनके लिए तो ये स्वायत्तता, एक ‘तोहफा' है कि वे अपनी मर्जी के मालिक बन गए हैं. सोचिए, इस ‘मर्जी' की कोई हद तो खिंची नहीं है.

क्या शिक्षा सिर्फ समृद्धों, अमीरों और नौकरीपेशा मध्यवर्गीय परिवारों के लिए ही रह जाएगी? क्या अब तक मिलती आ रही आसान उच्च शिक्षा को अब कर्ज के बूते ही पूरा किया जा सकेगा? बहुत सारे सवाल मंडरा रहे हैं और अनिश्चय, भय, दुश्चिंता और बेचैनियां गाढ़ी हो रही है. छात्रो ने लाठियां डंडे खा लिए और चोटें मुकदमे सह लिए, उधर सत्ता राजनीति के इस अप्रोप्रीएशन और कॉरपोरेट चालित निजीकरण की आंधियों से जनता ठिठकी हुई है.