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सजा ए मौत पर रोक की बहस

२६ अगस्त २०१४

भारत अमेरिका और चीन जैसे उन देशों में शामिल है जहां अभी भी मौत की सजा दी जाती है. यूरोपीय संघ ने इस सजा को खत्म कर दिया है. हाल में सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदंड पर अलग रुख अपनाया है. अब इसे खत्म करने पर बहस शुरू हुई है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

भारत में मृत्युदंड को समाप्त किए जाने का मुद्दा फिलहाल बहस के स्तर पर है. लगभग पांच दशक बाद एक बार फिर इस पर रायशुमारी कर जनता के मन को टटोलने की कवायद शुरु हुई है. भारतीय विधि आयोग ने एक बार फिर मृत्युदंड को खत्म करने का मुद्दा उठाया है. इस संवैधानिक निकाय का दायित्व कानून को समय के मुताबिक ढालना है. इसकी सिफारिशों को सरकार और संसद बड़ी ही गंभीरता से लेते हैं.

इसलिए विधि आयोग द्वारा इस मामले में जनता की राय लेना, मृत्युदंड को कानून से हटाने की दिशा में बहस तेज करने की गंभीर पहल मानी जाएगी. आयोग ने 1967 में भी इस पर विचार किया था. तब अपनी रिपोर्ट में आयोग ने मृत्युदंड की कानूनी अनिवार्यता को सही ठहराया था. आयोग ने सामाजिक परिस्थितियों के हवाले से कहा था कि परंपरावादी भारतीय समाज में अशिक्षा और असमानता की व्यापक खाई को देखते हुए मृत्युदंड को कानून से हटाना तर्कसंगत नहीं होगा.

अब पांच दशक बाद इस मामले पर नई बहस की भूमिका खुद सुप्रीम कोर्ट ने तैयार की है. दरअसल इस साल अब तक सुप्रीम कोर्ट ने 19 मामलों में मौत की सजा पर अपनी मुहर लगाई है. लेकिन साथ ही सजा पर अमल को रोका भी है. अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि बीते दस सालों में 132 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई है. मृत्युदंड के विरोधियों ने सुप्रीम कोर्ट से हाल ही में इस सजा को रोकने की गुहार लगाई. अदालत का कहना है कि कानून से मृत्युदंड का प्रावधान हटाना सरकार एवं संसद का दायित्व है. अदालत ने इस बात पर भी विचार करने को कहा है कि क्या मौजूदा व्यवस्था समाज में बढ़ते अपराधों को रोकने में सक्षम है.

कानून की स्थिति

भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 21 को कानून व्यवस्था की आत्मा कहा था. दरअसल अनुच्छेद 21 संविधान में प्रदत्त सभी मौलिक अधिकारों का आधार स्तंभ है जो हर व्यक्ति को जीने का अधिकार देता है. इसे प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार कहा गया है. अनुच्छेद 21 के मुताबिक किसी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से ही प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता से वंचित किया जा सकेगा.

सबसे पहले 1973 में जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह सवाल उठाया गया कि क्या आईपीसी की धारा 302 के तहत मृत्युदंड संवैधानिक है जबकि दंड प्रक्रिया संहिता में इस सजा को सुनाने की कोई प्रक्रिया विहित ही नहीं है. इसलिए यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है. इस मामले में पांच जजों की खंडपीठ ने इस दलील को खारिज करते हुए कहा कि आईपीसी की धारा 302 में वाद विशेष के तथ्य एवं परिस्थितियों के आधार पर सजा सुनाई जाती है. इसके बाद मेनका गांधी बनाम भारत संघ 1978 और राजेन्द्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश 1979 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदंड को हटाने की जोरदार पैरवी करते हुए कहा कि मौजूदा प्रक्रिया पूरी तरह से दोषरहित नहीं है.

बहस का आधार

मृत्युदंड की अवधारणा देश, काल और परिस्थितियों से परे है. सामाजिक व्यवस्था के वजूद में आने के साथ ही समाज में अच्छाई और बुराई के बीच संतुलन कायम करने की दलील के साथ सजा ए मौत को कानून में जगह मिली हुई है. प्राचीन काल में हम्मूराबी की विधि संहिता से लेकर आधुनिक कानून व्यवस्था तक, हर जगह और हर कालखंड में सामाजिक व्यवस्था कायम करने के लिए मृत्युदंड कानून का हिस्सा रहा है.

खासकर दुनिया भर में अपराध का बढ़ता ग्राफ उदारवादी सोच को चरमपंथ से जूझने की मजबूरी के चलते कठोरतम सजा की जरुरत का अहसास करा देता है. इसके बाद भी सभ्य समाज की ओर दुनिया को ले जाने का संकल्प मृत्युदंड की बहस को गाहे बगाहे जिंदा रखे हुए है. तब से लेकर अब तक मृत्युदंड के प्रावधान और प्रक्रिया की विधिमान्यता सिर्फ बहस के स्तर पर ही है. इस बार की बहस भी देश के इतिहास में पहली बार दो महिलाओं को फांसी देने की तैयारियों के परिप्रेक्ष्य में शुरु हुई है. अहम यह बात है कि इस बार बहस सिर्फ सजा को मिटाने की नहीं बल्कि सजा के मकसद को हासिल करने का सार्थक विकल्प खोजने के लिए हो रही है.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा