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सबके लिए चुनौती है आप्रवासन

क्रिस्टॉफ श्ट्राक/एमजे२१ जुलाई २०१५

जर्मनी में इस समय शरणार्थियों और आप्रवासन पर बहस हो रही है. डॉयचे वेले के क्रिस्टॉफ श्ट्राक का कहना है कि इसकी वजह शरणार्थियों की बढ़ती संख्या नहीं है. जर्मनी ने लंबे समय तक इस पर सकारात्मक बहस को नजरअंदाज किया है.

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Bundeskanzlerin Angela Merkel im Dialog mit Jugendlichen
तस्वीर: picture-alliance/dpa/B. Wüstneck

एक बच्ची ने इस बहस को हवा दी है. 14 साल की शरणार्थी लड़की रीम ने अपने अंजान भविष्य के बारे में खुली बात ने चांसलर अंगेला मैर्केल को दुविधा में डाल दिया और जर्मनी में शरणार्थियों की स्थिति और आप्रवासन पर बहस की शुरुआत करा दी. इस बहस में विचारधाराएं एक दूसरे से टकरा रही हैं, मुद्दे सामने आ रहे हैं. कभी शरणार्थियों की बात होती है तो कभी आप्रवासियों की. कभी यूरोपीय नियमों की बात होती है तो कभी मानवीय कर्तव्यों की. और इस बहस से पता चलता है कि आर्थिक रूप से सफल जर्मनी में आबादी की समस्या है. हालांकि वह कामगारों की कमी को पूरा करने के लिए आप्रवासियों और शरणार्थियों पर निर्भर है, लेकिन उसके पास इसके लिए कोई नीति नहीं है.

कुछ साल के लिए जर्मनी ने 2004 तक ग्रीन कार्ड की सुविधा दी है, जिसके तहत 13,000 विदेशी कामगार जर्मनी आए. उसके बाद 2005 में तत्कालीन एसपीडी-ग्रीन पार्टी की सरकार ने नया आप्रवासन कानून बनाया, जिसे दो साल बाद सीडीयू और एसपीडी की सरकार ने बदल दिया. इसी साल कुछ हफ्ते पहले सरकार ने निवास कानून में बदलाव किया है जिसके अनुसार ऐसे विदेशी जिन्हें अब तक स्थायी निवास परमिट नहीं दिया जा रहा था, जर्मन भाषा का ज्ञान होने और आजीविका चलाने की स्थिति में होने पर जर्मनी में स्थायी तौर पर रह सकते हैं. रीम जैसे मामलों में इससे मदद मिल सकती है, लेकिन यह भी साफ है कि अस्थायी वीजा का मतलब असुरक्षा का समय भी होता है.

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डॉयचे वेले के क्रिस्टॉफ श्ट्राकतस्वीर: DW

इसके अलावा यूरोपीय संघ में अब ब्लू कार्ड का सिस्टम है, जिसके जरिए सदस्य देश उच्च प्रशिक्षित विदेशियों को निवास परमिट दे सकते हैं. जर्मनी में ब्लूकार्ड पाने की शर्त सालाना आमदनी की एक ऐसी राशि है जो काम शुरू करने वाले बहुत से युवाओं के लिए संभव ही नहीं है. मतलब यह कि जर्मनी को आर्थिक कामयाबी के लिए आप्रवासन वाला देश होना होगा लेकिन कोई भी जोर से आप्रवासन शब्द मुंह में नहीं लेता. यह सही है कि चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू पार्टी के महासचिव आप्रवासन कानून बनाने की मांग कर रहे हैं, एसपीडी भी इसके बारे में बोल रही है, लेकिन ज्यादातर सीडीयू को परेशान करने के लिए.

वे सब एक ही बात बोल रहे हैं लेकिन संभवतः सोच अलग अलग रहे हैं. जर्मनी को ईमानदारी दिखानी होगी. आप्रवासन के मुद्दे पर और रिफ्यूजी के मुद्दे पर भी. क्योंकि सीरिया, इराक और लीबिया में युद्ध के कारण और भी लोग यूरोप आएंगे. सरकारी हिंसा से भागने और बेहतर भविष्य की उम्मीद में और ज्यादा अफ्रीकी यूरोप का रुख करेंगे. कोई नहीं जानता कि गृहयुद्ध से भागे लोग कितने दिनों तक जर्मनी में रहेंगे, और वे कभी अपने देश लौटेंगे भी क्या? लेकिन यह नहीं हो सकता कि यूरोपीय संघ की सदस्यता के उम्मीदवार बाल्कन देशों के दसियों हजार लोग शरण लेने के लिए जर्मनी में हों और फैसले की प्रक्रिया में महीनों लगे.

हां, जर्मनी में शरणार्थी गृहों पर हमले हो रहे हैं, विदेशी-विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं, बेवकूफाना राजनीतिक नारे दिए जा रहे हैं. लेकिन दूसरी ओर बहुत से लोग शरणार्थियों और विदेशियों के समर्थन में आवाज भी उठा रहे हैं. सेक्सनी में जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा विदेशी-विरोधी हमलों का निर्णायक विरोध करने में हफ्तों लग गए. यह भेदभाव को बढ़ावा देता है. अब बवेरिया से ऐसी आवाजें उठ रही हैं. सरकार को भेदभाव नहीं करना चाहिए. उसे यह भी पता होना चाहिए कि शरणार्थियों को पनाह देना और उनके साथ घुलना मिलना समाज को समृद्ध बनाता है, लेकिन इसके लिए सभी पक्षों के प्रयासों की भी जरूरत होती है. जर्मनी और यूरोप के सामने महती चुनौती है. राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर सकारात्मक बहस को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए और विदेशियों के समेकन को तकलीफदेह कर्तव्य नहीं समझना चाहिए.