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सावधान! आपका फर्श खून से सना है

१० मई २०१६

फर्श या स्लैब के लिए पत्थर बनाने वाले मजदूरों के हालात के बारे में आप सोचते नहीं होंगे. कम से कम एक बार जान तो लीजिए कि वे कैसे काम करते हैं. हो सकता है, अपने फर्श से आपको खून की महक आए.

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तस्वीर: Vanessa Stella Johnston

फर्श हो सुंदर तो स्वर्ग लगे घर. या फिर, फर्श जो चमचमाए, घर में रौनक आ जाए. इसलिए सुंदर सस्ती टिकाऊ फलां टाइल्स ही लाएं. इस तरह के विज्ञापन सुनकर आप बस खुश होते हैं न? अगर विज्ञापन कुछ ऐसा हो कि, 2 ने जान गंवाई, आपने यह टाइल लगवाई? तो क्या आप ऐसी टाइल्स खरीदेंगे? नहीं न. यानी सच सुनने के बाद आप वे चीजें इस्तेमाल नहीं करेंगे जो आपको खूब बढ़ाचढ़ाकर, शानदार बताकर और सुंदरता के नाम पर बेची जा रही हैं. पर सच यही है कि इन टाइल्स को बनाने के लिए सैकड़ों मजदूर अपनी जानें गंवा रहे हैं.

राजस्थान की पत्थर की खदानों में काम करने वाले हजारों लोग सिलिकोसिस से पीड़ित हैं. देश-विदेश में घरों, बाजारों, मॉल या पार्कों को सजाने वाले इन पत्थरों को काटकर टाइल बनाने और उन्हें पॉलिश करने में सैकड़ों मजदूरों की जान चली जाती है. रसोई में स्लैब के तौर पर इस्तेमाल होने वाला पत्थर ज्यादातर कोटा और बुंदी जिलों से आता है. इन खदानों और फैक्ट्रियों में मजदूरों की हालत बर्दाश्त से बाहर होती है. पैसा तो न के बराबर मिलता है लेकिन काम करने के हालात ऐसे हैं कि हर वक्त जान पर बनी रहती है.

Indien Steinbrucharbeiter Arbeitssicherheit
खदान मजदूर बेहद खराब हालात में 10-10 घंटे रोजाना काम करते हैं.तस्वीर: Getty Images/AFP/C. Mao

मजदूरों के अधिकारों के लिए काम करने वाले लोगों के मुताबिक राजस्थान में करीब 20 लाख खदान मजदूर हैं. इनमें से करीब आधे सिलिकॉसिस या सांस की किसी बीमारी से पीड़ित हैं. हालांकि इस बारे में अभी कोई ठोस आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन सैंडस्टोन और लाइमस्टोन की कटाई और पॉलिशिंग में सैकड़ों, बल्कि हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं. दुनियाभर में जितना भी पत्थर निकाला जाता है, भारत में उसका एक चौथाई उत्पादन है. इस हिसाब से भारत पत्थर उत्पादन में सबसे बड़े मुल्कों में से एक है.

पिछले साल राजस्थान के मानवाधिकार आयोग ने सरकार से कहा था कि माइनिंग को आधुनिक किया जाए और बीमारियों की रोकथाम के लिए नियमित जांच हो. ऐक्शन एड के मदन वैष्णव बताते हैं, ''मजदूरों के पास न कोई सुरक्षा है न अधिकार. वे गुलामों की तरह काम करते हैं, बीमार हो जाते हैं और मर जाते हैं.'' और समस्या सिर्फ यहीं नहीं है. भारत के कुल खदान मजदूरों में लगभग 20 फीसदी बच्चे हैं. इनमें से ज्यादातर बेहद खराब हालात में 10-10 घंटे रोजाना काम करते हैं.

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इन खदानों और फैक्ट्रियों में मजदूरों की हालत बर्दाश्त से बाहर होती है.तस्वीर: picture-alliance/dpa

राजस्थान की पत्थर खदानों के हालात अंतरराष्ट्रीय तो छोड़िए, राष्ट्रीय मानकों से भी कहीं ज्यादा खराब हैं. समस्या यह है कि ये लोग पीढ़ियों से इन खदानों में काम कर रहे हैं. कोई और विकल्प न होने की वजह से ये कुछ और काम भी नहीं कर सकते. गरीबी, कर्ज और फिर बंधुआ मजदूरी के ऐसे दुष्चक्र में ये लोग फंसे हैं कि इससे बाहर निकलने का रास्ता बस मौत ही है.

तो अगली बार जब आप अपने खूबसूरत फर्श को देखकर चहकें, एक बार सांस रोककर सोचिएगा कि उसमें किसी मजदूर का खून तो नहीं मिला.

वीके/एमजे (रॉयटर्स)