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सिमट रही है सहरी जगाने की परंपरा

२ जुलाई २०१५

माह-ए-रमजान में सहरी में जगाने की स्वस्थ परम्परा ‘दिलों और हाथों की तंगी’ की वजह से अब दम तोड़ रही है. फेरी रिश्तों को मजबूत करने वाला सामाजिक बंधन था लेकिन समाज में बिखराव के साथ इसकी डोरियां भी ढीली पड़ रही हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/dpaweb

"उठो सोने वाले सहरी का वक्त है, उठो अल्लाह के लिए, अपनी मगफिरत, गुनाहों की माफी के लिए" जैसे पुरतरन्नुम गीत गाते और शेरो-शायरी करते फेरीवालों की सदाएं वक्त के थपेड़ों और समाजी दस्तूर में बदलाव के साथ अब मद्धिम पड़ती जा रही हैं.
उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ स्थित प्रमुख इस्लामी शोध संस्थान ‘दारुल मुसन्निफीन' के उप प्रमुख मौलाना मुहम्मद उमैर कहते हैं कि सहरी के लिये जगाना फेरीवालों की सामाजिक पहचान हुआ करती थी. पुरानी तहजीब के रहनुमा माने जाने वाले ये फेरीवाले रमजान में देहातों और शहरों में रात को लोगों को सहरी की खातिर जगाने के लिये शेरो शायरी करते हुए निकलते हैं. ज्यादातर फेरीवाले फकीर बिरादरी के होते हैं.

सहरी के लिये जगाने के बदले लोग ईद में उन्हें बख्शीश देते थे लेकिन अब लोगों के दिल और हाथ तंग पड़ गए हैं. यही वजह है कि सहरी के लिये जगाने की परम्परा अब दम तोड़ रही है. अब फेरीवालों की जगह लाउडस्पीकर और अलार्म घड़ी ने ले ली है. पुराने जमाने में संपन्न लोग कमजोर तबके के लोगों की अच्छे अंदाज से खिदमत करते थे और फेरी के बदले बख्शीश भी इसी का हिस्सा हुआ करती थी. अमीर लोग इन फेरी वालों के त्यौहार की जरूरतें पूरी कर देते थे, मगर अब वह फिक्र अपना नूर खो चुकी है. मौलाना उमैर के अनुसार फेरीवाले लोग मजहबी लिहाज से खुशी और सवाब के लिये भी यह काम करते थे.

सहरी के लिये लोगों को जगाने वाले फकीर अब्दुल मन्नान का कहना है कि रोजेदारों को सहरी के लिये जगाने का सिलसिला पिछले पांच-छह साल में कम होने के साथ-साथ कुछ खास इलाकों तक सीमित हो गया है. अब फेरी की परम्परा सिर्फ रस्मी रूप तक सीमित रह गयी है. लोग अब सहरी के लिये उठने के वास्ते अलार्म घड़ी का इस्तेमाल करते हैं और अब तो मोबाइल फोन के रूप में अलार्म हर खास-ओ-आम के हाथ में पहुंच चुका है.

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी शहर के रहने वाले मन्नान कहते हैं कि रमजान में अब फेरीवालों का रुझान मेरठ, गाजियाबाद और दिल्ली जैसे अपेक्षाकृत धनी शहरों की तरफ रहता है और वे वहां जाकर लोगों को सहरी के लिये जगाने को तरजीह देते हैं. वहां उन्हें ईद में अच्छी खासी बख्शीश मिलती है जो अब छोटे शहरों और गांवों में हासिल नहीं होती. फेरीवालों की रवायती हरी लचकदार सदरी और पगड़ी पहने मन्नान ने बताया कि फेरीवाले फकीर रात करीब डेढ़ बजे टोलियों में बंटकर शहर के अलग-अलग मुहल्लों में जाकर लोगों को सहरी के लिये जगाते हैं.

एमजे/एसएफ (वार्ता)