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विवाद

सीरिया से असद की विदाई अब कोई क्यों नहीं मांगता

निखिल रंजन
२९ दिसम्बर २०१८

भाई की मौत के बाद राजनीति में आए एक शहजादे की कूटनीति और युद्धनीति दुनिया के ताकतवर देशों से अपना पीछा छुड़ाने में कामयाब हो गई. सीरिया के शासन से असद को हटाने की बात अब कोई नहीं कर रहा. 6 साल में हालात इतना कैसे बदल गए?

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Syrien l Alltag in Damaskus l Banner mit Präsident Al-Assad in Douma
तस्वीर: Reuters/M. Djurica

याद कीजिये साल 2011 का वो वक्त जब जनवरी के आखिरी महीने में कुर्द शहर अल हसकाह में हसन अली अकलेह ने पेट्रोल में भिंगो कर खुद को आग लगा ली. हसन ने यह कदम सीरियाई शासक बशर अल असद के शासन के प्रति विरोध जताने के लिए उठाया था. कुछ महीने पहले ट्यूनीश में इसी तरह की पहल ने अरब वसंत के आंदोलन को चिंगारी दिखाई थी. सीरिया में भी आंदोलन की आग भड़कने लगी, विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया और आपातकाल की नौबत आ गई. एक आंदोलन सड़क और गलियों में हो रहा था और दूसरा सोशल मीडिया पर. हालात बिल्कुल वही बनने लगे जो ट्यूनीशिया, लीबिया और मिस्र में दिखे थे. अशांत सीरिया की आग को इराक से उभरे इस्लामिक स्टेट ने मौका माना और सीरिया पर कब्जे के लिए कूच कर गया.

एक साल के अंदर ही सीरिया पूरी तरह से जंग के मैदान में तब्दील हो गया. एक तरफ असद के विद्रोही थे, दूसरी तरफ इस्लामिक स्टेट, असद सरकार इन दोनों से एक साथ जूझ रही थी. फिर सीरिया की जंग में यूरोप, अमेरिका, तुर्की सऊदी अरब समेत तमाम देश अपनी भूमिका लिखने लगे. कोई हथियार दे रहा था तो कोई गोला बारूद, कोई शरणार्थियों को संभाल रहा था तो कोई वहां के संसाधनों नजर गड़ाए था, पूरा सीरिया जंग का मैदान बन गया और तमाम दिशाओं में मोर्चे खुल गए.  

Russland Wladimir Putin & Baschar al-Assad in Sotschi
पुतिन के समर्थन से कामयाब हुए असदतस्वीर: picture-alliance/dpa/Sputnik/M. Klimentyev

असद से देश का शासन छोड़ने की मांग तेज होने लगी. विरोधियों की इन आवाजों को अमेरिका, पश्चिमी ताकतें और सऊदी अरब, इस्रायल का भी साथ मिला लेकिन असद टिके रहे. अभी यह कयास लग ही रहे थे कि असद का क्या होगा तभी एक बड़ी घटना हुई. अंतरराष्ट्रीय विरोध को नजरअंदाज कर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इस जंग में असद का साथ देने की बात कही और रूस अपने जहाज और दूसरे सैनिक साजो सामान के साथ युद्ध के मोर्चे पर आ गया. रूस का साथ आना असद और सीरिया के लिए सबसे बड़ा गेमचेंजर साबित हुआ. अब तक लुक छिप कर समर्थन दे रहा ईरान भी खुल कर असद को समर्थन देने लगा. असद के हौसलों को बल मिला और विरोधियों के लिए यह जंग मुश्किल हो गई.

अमेरिका विरोधियों की मदद कर रहा था लेकिन सीधे जंग में उतरने से उसने पहले ही इनकार कर दिया था. अंतरराष्ट्रीय मामलों की भारतीय परिषद में सीनियर फेलो फज्जुर रहमान कहते हैं, "असद की सत्ता के लिए सबसे बड़ी सफलता बनी रूस का समर्थन हासिल होना. रूस के आने के बाद सीरिया की जंग पूरी तरह से इस्लामिक स्टेट के खिलाफ हो गई और असद को हटाने या संविधान बनाने जैसी जो बातें हो रही थीं वो बंद हो गईं." फज्जुर रहमान यह भी कहते हैं, "अमेरिका और दूसरे देश जो असद को हटाने की बात कह रहे थे उनके पास सीरिया के भविष्य की कोई योजना नहीं थी कि असद के हटने के बाद क्या होगा. असद को लेकर दो ही देश सबसे ज्यादा गंभीर थे एक सऊदी अरब और दूसरा ईरान. एक असद को हटाना चाहता था और दूसरा असद के साथ था लेकिन रूस के आने के बाद यह बातचीत ही बंद हो गई."

रूस के आने के बाद एक एक करके सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर सब धीरे धीरे पीछे हट गए. ये देश पीछे हुए और तुर्की के रूप में एक नये खिलाड़ी ने इस जंग के परिदृश्य में कदम रखा जो अपने साथ ना सिर्फ सेना बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक ताकत भी लेकर आया. अब रूस, सीरिया, ईरान और तुर्की मिल कर एक ऐसा गुट बन गया जिसे असद से कोई आपत्ति नहीं थी. दूसरी तरफ असद के विरोधी बिखर रहे थे. इस्लामिक स्टेट पर हर तरफ से हमला हो रहा था और सीरिया के विद्रोही गुट के पास इतनी ताकत नहीं थी कि वो असद को चुनौती दे सके. दुनिया के बाकी देशों का ध्यान सिर्फ इस्लामिक स्टेट और आतंकवाद को मिटाने पर लगा हुआ था.

Syrien - Syrische Armee fährt in  Manbidsch ein
सीरियाई सेना को समर्थन देता तुर्कीतस्वीर: Reuters/K. Ashawi

रूस के आने के बाद एक और बड़ा बदलाव यह हुआ कि अब तक सीरिया पर जो बातचीत संयुक्त राष्ट्र में हो रही थी वह अस्ताना, अंकारा और मास्को में होने लगी.

फज्जुर रहमान कहते हैं, "रूस सीरिया पर शांति बातचीत में कभी तुर्की तो कभी ईरान को बुलाने लगा और सारी बातें संयुक्त राष्ट्र के बाहर होने लगी जहां अमेरिका का दबदबा था. नतीजा ये हुआ कि इस प्रक्रिया में रूस के फैसले असरदार होने लगे, दरअसल रूस ने समझ लिया था कि अमेरिका की सीरिया में बहुत दिलचस्पी है नहीं."

ट्रंप के आने के बाद अमेरिका मध्यपूर्व से बाहर निकलने की फिराक में है, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के सामने ज्यादा बड़ी चुनौती यमन बना हुआ है और इन सब के बीच रूस की मदद से असद के राजनीतिक, कूटनीतिक, रणनीतिक और सामरिक रूप से मजबूत होने लगे. इस्लामिक स्टेट के पांव उखाड़ने के बाद अब अंतरराष्ट्रीय ताकतों को भी समझ में आ गया है कि उनके पास असद के खिलाफ कहने को बहुत कुछ नहीं है.

संयुक्त अरब अमीरात ने सीरिया में दूतावास खोलने की बात कही है, सूडान के राष्ट्रप्रमुख ने आठ साल में पहली बार सीरिया का दौरा किया, तुर्की इशारों इशारों में असद से बातचीत करने की बात कह रहा है, यूरोपीय संघ चुप है और अमेरिका कह रहा है "वह दुनिया का दरोगा नहीं है," तो यह समझना मुश्किल नहीं कि अब सीरिया पूर तरह से असद की पकड़ में है.

फज्जुर रहमान कहते हैं, "असद का राजनीतिक भविष्य बेहद सुरक्षित, संगठित और ताकतवर है." इस आपाधापी में एक सवाल यह भी है कि जो लोग सीरिया में रह कर असद का विरोध कर रहे थे, जिन्होंने इस्लामिक स्टेट से भी लोहा लिया और जिन्हें अमेरिका जैसे देशों की मदद मिली वो कहां हैं और उनका क्या होगा? बीते छह साल की जंग में वो विद्रोही ताकतें अपनी धार ही नहीं अपना अस्तित्व भी लगभग खोने के कगार पर हैं. इस जंग में मारे गए 3.5 से 5.5 लाख लोगों में बड़ी तादाद उन विद्रोहियों की है जो असद को हटाना चाहते थे.

फज्जुर रहमान कहते हैं, "किसी के पास असद का कोई विकल्प नहीं था. इसके अलावा इस्लामिक स्टेट के उफान के दौर में ऐसी दहशत बन गई जिसने सबको डरा दिया. विरोधी गुटों के पास अपनी ताकत थी नहीं और आपस में बंटे समर्थक देशों के दम पर जंग जीतना मुश्किल था." इन कारणों ने भी असद के लिए अपनी ताकत को संगठित करने और विद्रोहियों का दमन करने में मदद की.

जिस अरब वसंत की आंधी ने दिग्गजों को धूल चटा दिया वह अमेरिका, यूरोप, इस्लामिक स्टेट, इलाकाई कबीलों की मदद के बाद भी असद का बाल बांका नहीं कर सकी. सीरिया जरूर मलबे का ढेर बन गया लेकिन कई मामलों में वह लीबिया, ट्यूनीशिया, मिस्र से बेहतर स्थिति में है. कम से कम उस पर एक मजबूत सरकार की छत्रछाया है और वह अनाथ नहीं हुआ है.

(सीरिया पर हमला: कौन किसके साथ?)