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सुन्न समाज और गुम साहित्य

१० फ़रवरी २०१४

चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी “उसने कहा था” प्रेम, त्याग, युद्ध के तनाव और उसकी व्यर्थता पर रची गई है. उसके 100 साल पूरे हुए हैं. इन वर्षों में हिन्दी साहित्य और उसका समाज हिचकोले खाता हुआ कभी बढ़ता कभी अटकता दिखता है.

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तस्वीर: Fotolia/Dmitry Chernobrov

आज हिन्दी देश की सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती नहीं दिखती. राजभाषा और राष्ट्रभाषा की बात तो रहने ही दीजिए. जानेमाने भाषाविद गणेश देवी के मुताबिक, “हिन्दी अपने आस पास की भाषाओं को स्वीकार नहीं करती है.” क्या ये उसकी आत्ममुग्धता है. भाषा के तौर पर हिन्दी को तो कहां देश को एकजुट रखना था, खुद अपनी भाषा बोलियों और आस पड़ोस के साथ एकजुट रहना था और कहां हम देखते हैं कि हिन्दी में तो गिरोहबंदी चल पड़ी है. साहित्य से जुड़े संगठन भी अपनी असल भूमिकाओं के बजाय राजनैतिक तलवारबाजी में व्यस्त दिखते हैं.

प्रगतिशील लेखक संगठन, जनवादी लेखक संगठन, जन संस्कृति मंच जैसे संगठन आधुनिक हिन्दी की दुनिया के व्यस्त जमावड़े हैं. लेकिन देखा गया है कि इन संगठनों में श्रेष्ठता और वर्चस्व की कभी प्रकट तो ज्यादातर अप्रकट जंग छिड़ी रहती है. कई महत्त्वपूर्ण और नए रचनाकार संगठनों से दूरी बनाए रखने में ही भलाई समझते हैं. इस तरह हिन्दी साहित्य अपने समाज से एक दूरी बनाता जाता है. हिन्दी की ये जमीन प्रतिद्वंद्विता, अहम के टकराव और प्रकाशन बाजार पर अपना दबाव न रख पाने की कमजोरी की वजह से छीज रही है. हिन्दी में अक्सर ये रोना रहता है कि प्रकाशक मनमर्जी करते हैं, रॉयल्टी देने में कतराते हैं, और भी कई कमर्शियल फायदे उठाते हैं और लेखकों को बाजदफा दरकिनार ही कर देते हैं.

यानि साहित्य ने अपनी ऐसी ज्वाला नहीं बनाई जो बाजार की आंच के सामने पड़ते ही बुझ न जाए. बाजार में हिन्दी भाषा में किताबें खूब आ रही हैं लेकिन हिन्दी के लेखकों के समांतर आप देखेंगे कि अंग्रेजी से अनूदित किताबों का भी बोलबाला है. अमीश त्रिपाठी की शिव त्रयी अंग्रेजी में भी हाथोंहाथ ली जाती है और एक भयंकर अनुवाद के बावजूद हिन्दी में भी उसे चाहने वालों की कमी नहीं. उसका मार्केट हर जगह हिट है. यही हाल हैरी पॉटर का है. ये भी एक बात है कि बाजार के हवाले से किन किताबों, किन विषयों को तवज्जो मिलती है. लुगदी साहित्य या स्वास्थ्य और देह को चमकाने की टिप्स वाली किताब या कोई गॉसिप पत्रिका खूब बिकती है. हिन्दी में इधर जो विमर्श निकले हैं, उनमें भी स्त्री विमर्श के नाम पर जो एक सिलसिला देह विमर्श का चल पड़ा है वो सनसनी बनाता है. तो जहां विवाद हैं वहां किताब बिकने लगती हैं.

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तस्वीर: Suhail Waheed

लेकिन इस माहौल के बीच हिन्दी साहित्य में एक प्रतिरोधी जिद के साथ अड़े ऐसे नए और पुराने लेखक हैं जिनका लिखा छोटे ही सही लेकिन गंभीर हल्कों में सराहा जा रहा है. हिन्दी में लघु पत्रिका आंदोलन प्रखर आंदोलन रहा है. कई डगमग अवसरों और राजनैतिक खुराफातों के बावजूद लघु पत्रिकाएं जारी हैं और ऐसे उपभोक्तावादी समाज में जारी हैं तो ये राहत है.

फिल्म गीतकार प्रसून जोशी कहते हैं कि ये पैकेजिंग का दौर है. अंग्रेजी के प्रभुत्व के बारे में बताती इस बात में आशय ये है कि हिन्दी को भी कुछ इस तरतीब पर जाना पड़ेगा. लेकिन वो पैकेजिंग कैसी होगी. क्या हिंदी के प्रकाशक ऐसी व्यवस्था के लिए तत्पर हैं. क्या लघु पत्रिका चलाने वाले लेखकों के पास इतने संसाधन हैं. लेखक बाजार के हिसाब से नहीं चलेगा तो क्या उसका साहित्य रद्दी में चला जाएगा? शायद नहीं. अगर ऐसा होता है तो हमारा समाज प्रेमचंद, रेणु और यशपाल को इतने चाव से अभी तक न पढ़ रहा होता. कबीर, सूर, तुलसी, मीर, गालिब, फैज, निराला, मुक्तिबोध और नागार्जुन लोगों की जबानों पर न होते.

हिंदी साहित्य का नुकसान कुछ उसकी आंतरिक राजनीति और कुछ इस वृहद भूगोल की बदलती मुख्यधारा की राजनीति ने किया है. बाजार और बहुसंख्यकवाद का हमला एक साथ इस समाज पर टूटा है. वैश्विक पूंजी ने सरकारों के चेहरे बिगाड़ दिए हैं. ऐसे में समाज हतप्रभ है और सवालों का हल उसे नहीं सूझता. एक किताब क्या उसकी मदद कर सकती थी, शायद हां लेकिन वो जाता है टीवी की शरण में या बाजार की शरण में. कल्चरल प्रोडक्ट उसके सामने एक से एक आ गए हैं तो फिर किताब की क्या बिसात.

एक समाज जब बेसुधी में चला जाता है तो उसे लौटने में वक्त लगता है. साहित्य की ओर वो ऐसे ही लौटेगा. हो सकता है बाजार ही तब उसके सामने मजबूर हो जाए कि किताबों की अनदेखी न कर सके. उन किताबों की जिनकी इस समाज को बुनियादी जरूरत है वरना तो किताबों से बाजार अटा ही पड़ा है.

ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी

संपादन: अनवर जे अशरफ

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