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सैटेलाइट पायलटों का ड्राइविंग लाइसेंस

२२ मई २०१४

अंतरिक्ष में सैटेलाइट भेजे जाने की खबर आप अक्सर पढ़ते हैं. कभी सोचा है कि सैटेलाइट के पायलटों का फ्लाइंग लाइसेंस कैसे बनता है. सैटेलाइट उड़ाना कतई आसान नहीं. बर्लिन में चल रहे उड्डयन मेले आईएलए में इसे देखा जा सकता है.

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तस्वीर: Telespazio VEGA Deutschland

अंतरिक्ष में जाने वाले उपग्रहों को गाइड करना बहुत ही मुश्किल होता है. धरती से देखा भी नहीं जा सकता कि पायलट क्या कर रहे हैं. उन्हें जमीन पर स्थित कंट्रोल रूम से अंक और अक्षर मिलते हैं जिन पर उन्हें रिएक्ट करना होता है. अंतरिक्ष यात्रा के पायदों से लोगों को परिचित कराने के लिए बर्लिन के आईएलए में बहुत सारी प्रदर्शनी लगी है. उनमें से एक में सैटेलाइट के पायलटों को अपना काम करते देखा जा सकता है.

एड ट्रोलोप भौतिकशास्त्री और एरोनॉटिकल इंजीनियर हैं. उन्होंने कमरे में चार कंप्यूटर लगा रखे हैं, जो इयरफोन और माइक्रोफोन से लैस हैं. यह एक सिमुलेटर है जिसे अंतरराष्ट्रीय उड्डयन मेले के दर्शक देख सकते हैं.सैटेलाइट के पायलटों की एक टीम यहां इस बात की प्रैक्टिस कर रही है कि धरती पर नजर रखने वाला उपग्रह कक्षा में कैसे भेजा जाता है. फ्रेंच गयाना के कूरू में एक एरियान प्रक्षेपण यान छोड़े जाने के साथ प्रैक्टिस की शुरुआत हुई. रॉकेट छोड़े जाने को एक बीमर के जरिए कमरे की दीवार पर दिखाया जा रहा है.

कुछ देर बाद सैटेलाइट कक्षा में पहुंच जाता है. उसके बाद नासा के धरती वाले इंजीनियर मॉनीटर पर रिपोर्ट करते हैं और इस बात की पुष्टि करते हैं कि सैटेलाइट को सफलता के साथ कक्षा में डाल दिया गया है और वह रॉकेट से अलग हो गया है. अब वह अकेला अंतरिक्ष की कक्षा में डोलने लगता है.

बिन बिजली सब सून

अब जल्द ही कुछ करने की जरूरत है. ट्रोलोप बताते हैं, "यह मिशन का बहुत ही मुश्किल क्षण है. उपग्रह को ऊर्जा के लिए उसके सोलर पैनल की जरूरत है. हमें उसे जितनी जल्दी हो सके, शुरू करना होगा." वह अपने कंट्रोल टीम की ओर मुखातिब होते हैं, "आपने ह्यूस्टन के ग्राउंड इंजीनियरों की बातें सुनीं और 75 करोड़ महंगे उपग्रह की जिम्मा लिया है, जिस पर 500 लोगों ने पांच साल तक काम किया है. अब आपकी जिम्मेदारी है कि यह मिशन यहीं खत्म न हो." इसके बाद स्पेसक्राफ्ट ऑपरेशन मैनेजर राइनर लामर्ट जिम्मेदारी अपने हाथों में लेते हैं.

लामर्ट कहते हैं, "हम अब फ्लो चार्ट की एक एक कर जांच करेंगे, कि किस क्रम में हमें क्या करना है." किसी ऑर्केस्ट्रा के निदेशक की तरह सॉफ्टवेयर इंजीनियर लामर्ट अब ऑपरेशन का निर्देशन कर रहे हैं. एक एक कर वे टीम के सदस्यों को सोलर पैनल को चालू करने की प्रक्रिया की जानकारी देते हैं. सबसे पहले मैं यह जांचूंगा कि क्या सभी माइक्रोफोन पर आवाज सुन रहे हैं. ये तकनीकी हिस्सों के लिए जिम्मेदार स्पेसक्राफ्ट इंजीनियर मथियास माट और क्रिस्टियान बोडेमन हैं. उनके साथ कंट्रोलर की भूमिका निभा रहे येंस फिशर हैं जिनका काम यह है कि सैटेलाइट तक साइन क्लियर हो.

अंकों की कतार और तय प्रक्रिया

सैटेलाइट के साथ पहले संपर्क के बाद लामर्ट कहते हैं, "अब हम देखेंगे कि सैटेलाइट से डाटा आना शुरू हुआ या नहीं." वे अपनी टीम से पूछते हैं, "बताएं कि टेलिमैट्री डाटा रिसीव किया गया." टेलिमैट्री डाटा वह सूचना है जो सैटेलाइट इकट्ठा कर ग्राउंड स्टेशन को भेजता है. अपनी स्थिति के बारे में, अंतरिक्ष में अपनी जगह के बारे में, बैटरी के बारे में और दूसरी सूचनाएं. सैटेलाइट पायलट जब डाटा पाने की पुष्टि कर देते हैं तब लामर्ट को सैटेलाइट की स्थिति के बारे में सही जानकारी मिलती है. सब कुछ योजना के हिसाब से चल रहा है. वे अपनी टीम को सैटेलाइट को कंट्रोल कमांड भेजने को कहते हैं.

सबसे अहम मोटर को एक्टिवेट करने का कमांड, जिससे सोलर पैनल चल सके, अंकों और अक्षरों की कतार वाला होता है. सिमुलेशन इंचार्ज ट्रोलोप कहते हैं, "हर कमांड की तय संरचना होती है, और बहुत सारी अतिरिक्त सूचना होती है ताकि सैटेलाइट को पता रहे कि कौन कमांड कहां से आया है." करीब पौन घंटे और कई सारे कमांड के बाद काम पूरा हो गया. टेलिमैट्री सैटेलाइट पायलटों को बताता है कि सोलर पैनल काम करने लगा है और ऊर्जा की सप्लाई कर रहा है.

Satellitensimulation: Kontrolleure üben im ESA Simulationsraum
तस्वीर: Telespazio VEGA Deutschland / J. Mai

तनाव के बावजूद काम

अब तक सब कुछ ठीकठाक है. आम तौर पर सब ठीक भी रहता है क्योंकि पायलट दृढ़ता से अपनी योजना के अनुसार काम करते हैं. हर अप्रत्याशित घटना के लिए एक इमरजेंसी प्लान होता है. यह फाइलों में कागजों पर लिखा होता है. टेलिस्पात्सियो वेगा की प्रवक्ता अलेक्जांड्रा सोकोलोव्स्की बताती हैं, "यह बहुत गैरसेक्सी दिखता है, लेकिन यही है जिसके साथ कंट्रोलर काम करते हैं." उन्हें अपने डाटा का विश्लेषण करना होता है, उसकी व्याख्या करनी होती है. यह बहुत ही रूखा और तनाव वाला काम है.

अक्सर सैटेलाइट कंट्रोलरों को लंबा इंतजार भी करना पड़ता है. धरती के निकट वाले सैटेलाइटों के साथ यह तब होता है जब वह अपने एंटीना के इलाके से बाहर निकल जाता है और उसे फिर से चक्कर काटना होता है. रोजेटा जैसे बहुत दूर स्थित उपग्रहों के मामले में दूरी ही पायलटों के लिए परीक्षा की घड़ी साबित होती है. रोशनी की रफ्तार के बावजूद सिग्नल को जाने और आने में डेढ़ घंटे से ज्यादा लग जाता है और इसकी सिमुलेटर पर ट्रेनिंग भी लेनी होती है. सोकोलोव्स्की कहती हैं, "कंट्रोल रूम में इंतजार करना, इसे बर्दाश्त करना होता है. इससे तनाव भी होता है."

असली सैटेलाइट पर काम करने से पहले पायलट को महीनों तक सिमुलेटर पर साबित करना होता है कि वह स्थिति पर नियंत्रण रख सकता है और तनाव का सामना करने की हालत में है. असली उड़ान के समय वह नहीं होना चाहिए जिसका अनुभव क्रिस्टियान बोडेमन ने एक बार अंतरिक्ष केंद्र आईएसएस को ट्रांसपोर्ट उड़ान की ट्रेनिंग के दौरान किया. "आठ घंटे बाद यूजर आए और कहा कि सिमुलेटर काम नहीं कर रहा है. कमांडो भेजना संभव नहीं है." हालांकि सिमुलेटर ठीकठाक था, ट्रेनी सोलर पैनल को बंद करना भूल गए थे. आठ घंटे बाद बैटरी खत्म हो गया था. असली दुनिया में ट्रांसपोर्टर खो गया होता और अंतरिक्ष केंद्र पर यात्रियों को कुमुक नहीं मिलती.

रिपोर्ट: फाबियान श्मिट/एमजे

संपादन: मानसी गोपालकृष्णन