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शिक्षा

स्कूली बस्तों का बोझ घटाने के लिए कानून जरूरी

प्रभाकर मणि तिवारी
१४ फ़रवरी २०१९

स्कूली बस्तों के बढ़ते बोझ के चलते छोटे छोटे बच्चों को भी रीढ़ की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. इस सब के बीच कोई ये सवाल नहीं कर रहा है कि इन बस्तों के लगातार बढ़ते बोझ के लिए कौन जिम्मेदार है और इसकी वजह क्या है.

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Indien Schule
तस्वीर: Courtesy/M Ansari

स्कूली बस्तों का लगातार बढ़ता बोझ लंबे अरसे से छात्रों और अभिभावकों के लिए गंभीर चिंता का मुद्दा रहा है. केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने नवंबर 2018 में इसे कम करने के लिए तमाम राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को कुछ दिशानिर्देश जारी किए थे. इसी आधार पर अब मेघालय सरकार ने छात्रों को भारी राहत देते हुए राज्य के तमाम स्कूलों में हर कक्षा के लिए स्कूली बस्तों के बोझ की सीमा तय कर दी है. लेकिन शिक्षाविदों का कहना है कि इस बारे में सख्त कानून बनाए बिना यह समस्या हल नहीं होगी.

इसकी वजह यह है कि केंद्रीय दिशानिर्देशों को मानना राज्य सरकारों के लिए अनिवार्य नहीं है. अब तक महज तीन सरकारों ने ही इस बारे में दिशानिर्देश जारी किए हैं. लेकिन खासकर निजी स्कूलों में इसका पालन नहीं हो रहा है. पश्चिम बंगाल सरकार ने भी इस मामले पर चुप्पी साध रखी है.

होमवर्क भी नहीं मिलेगा

मेघालय की कोनराड संगमा सरकार ने जो दिशानिर्देश जारी किया है उसमें तमाम कक्षाओं के लिए स्कूली बस्ते की वजनसीमा तय कर दी गई है. इसके अलावा कुछ अपवादों को छोड़ कर पहली व दूसरी कक्षा के छात्रों को होमवर्क देने पर भी पाबंदी लगा दी गई है. इससे राज्य के छात्रों व अभिभावकों ने कुछ राहत की सांस ली है.

विभाग ने तमाम स्कूलों के प्रिंसिपलों से ऐसा टाइमटेबल बनाने को कहा है ताकि छात्रों को ज्यादा पुस्तकें या नोटबुक ले कर स्कूल नहीं जाना पड़े. सरकारी अधिसूचना में कहा गया है कि पहली व दूसरी कक्षा के स्कूल बस्ते का वजन डेढ़ किलो से ज्यादा नहीं होना चाहिए. तीसरी से पांचवीं कक्षा तक यह सीमा तीन किलो तय की गई है. इसमें कहा गया है कि छठी व सातवीं कक्षा के छात्रों के बस्ते का बोझ अधिकतम चार किलो होना चाहिए. इसी तरह आठवीं व नवीं कक्षा के लिए यह सीमा साढ़े चार किलो होगी जबकि दसवीं के छात्रों के लिए पांच किलो.

दरअसल केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने बीते साल के आखिर में राज्य सरकारों व केंद्रशासित क्षेत्रों के प्रशासन को इस बारे में सलाह जारी की थी. पहली नजर में तो यह कदम सराहनीय लगता है. लेकिन सवाल यह है कि क्या स्कूली बस्तों का भारी बोझ अपने आप में एक समस्या है या फिर यह भारतीय शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी खामी है. इसकी वजह यह है कि इस बस्ते का बोढ़ बढ़ाने में छात्रों या अभिभावकों की कोई भूमिका नहीं होती. सरकारी आदेश में इन सवालों का कोई जिक्र या जवाब नहीं है कि आखिर इन बस्तों के लगातार बढ़ते बोझ के लिए कौन जिम्मेदार है और इसकी वजह क्या है.

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बच्चों की पीठ की बुरी हालत

स्कूले बस्ते का बढ़ता बोझ बीते खासकर दो दशकों के दौरान निजी स्कूलों की बढ़ती तादाद के साथ बढ़ाता रहा है. 2016 में एसोसिएडेट चेंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (एसोचैम) की स्वास्थ्य समिति ने देश के 10 शहरों में कराए गए एक सर्वेक्षण के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 13 साल से कम उम्र के 68 फीसदी छात्रों को इस वजह से रीढ़ और पीठ दर्द की समस्या से जूझना पड़ रहा है. इसमें कहा गया था कि सात से 13 साल की उम्र के 88 फीसदी से ज्यादा बच्चे अपने शारीरिक वजन का लगभग 45 फीसदी के बारबर वजन पीठ पर ढोते हैं. इन बच्चों को पहली से सातवीं या आठवीं कक्षा तक कम से कम 21 पुस्तकें व कॉपियां लेकर स्कूल जाना होता है. रिपोर्ट में निजी स्कूलों के छात्रों के बस्ते का बोझ सबसे ज्यादा बताया गया था.

1993 में मानव संसाधन मंत्रालय की ओर से नियुक्त प्रोफेसर यशपाल समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि छात्रों पर भारी बस्तों का बोझ नहीं लादना चाहिए. केंद्रीय विद्यालय संगठन ने 2010 में बस्तों का बोझ कम करने की एक नीति जारी की थी. लेकिन विभिन्न राज्यों में इसका पालन नहीं होता. कई शिक्षा बोर्ड भी इस बारे में अलग अलग दिशानिर्देश जारी करते रहे हैं.

इस मुद्दे पर समय समय पर विभिन्न अदालतों में जनहित याचिकाएं भी दायर की जाती रही हैं. लेकिन अब तक यह समस्या जस की तस है. शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत स्कूलों में साफ व समुचित पेय जल मुहैया कराने का प्रावधान तो है लेकिन इसमें बस्तों के बोझ कम करने का कोई जिक्र नहीं है. शिक्षाविद् प्रोफेसर रमापद सेन कहते हैं, "स्कूलों में आठ घंटे की पढ़ाई, तमाम तरह के प्रोजेक्ट्स और छोटी कक्षाओं से ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की वजह से छात्रों के बस्ते का बोझ कम होने की बजाय लगातार बढ़ रहा है. इसकी वजह से आधे से ज्यादा छात्रों को पीठ दर्द समेत विभिन्न स्वाथ्य समस्याओं से जूझना पड़ता है."

सेन कहते हैं कि सरकार को 2006 में राज्यसभा में पारित चिल्ड्रेन स्कूल बैग्स (लिमिटेशन ऑन वेट) बिल के प्रावधानों को कड़ाई से लागू करने के लिए कानून बनाना चाहिए. उक्त विधेयक में कहा गया है कि इन नियमों का उल्लंघन करने वाले स्कूलों पर तीन लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है. बिल में केंद्र सरकार को दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए सख्त नियम बनाने का अधिकार दिया गया था. लेकिन तमाम केंद्र सरकारों ने इस बारे में चुप्पी ही साधे रखी है.

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बिना कानून के कुछ मुमकिन नहीं

एक अन्य शिक्षाविद् प्रफुल्ल कर्मकार कहते हैं, "महज सरकारी दिशानिर्देशों से यह समस्या हल नहीं होगी. इस पर काबू पाने के लिए कड़े कानूनी प्रावधान जरूरी हैं. इसके अलावा एक निगरानी तंत्र की स्थापना भी जरूरी है जो इनको लागू करने पर नजर रखेगा." कर्मकार कहते हैं कि खासकर निजी स्कूलों में एक एक विषय की पांच पुस्तकें व कॉपियां होती हैं. इनमें से अगर आधी पुस्तकें भी लेकर स्कूल जाना हो, तो वजन की सीमा को लागू करना असंभव है. इनके साथ टिफिन बॉक्स व पानी की बोतल का वजन भी जुड़ जाता है.

सबसे बड़ी विडबंना यह है कि इन भारी बस्तों को ढोने वाले छात्रों की इस मामले में कोई भूमिका नहीं है. छोटी कक्षाओं से ही छात्र अपनी पीठ पर बस्तों के साथ साथ अपने अभिभावकों की उम्मीदों का भारी बोझ भी ढोने पर मजबूर हैं. नतीजा विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के तौर पर सामने आ रहा है. अभिभावकों का कहना है कि महज दिशानिर्देश जारी करने की बजाय सरकार को इस बात पर ध्यान देना होगा कि इन नियमों को तमाम स्कूलों में लागू किया जाता है या नहीं.

जुर्माने या सजा का कानूनी प्रावधान नहीं रहने तक ऐसी कवायद का कोई फायदा नहीं होगा. एक अभिभावक इंद्रनील गुप्ता कहते हैं, "स्कूलों में भारी भरकम फीस लेकर तमाम विषयों के अलावा रोजाना प्रतियोगी परीक्षा से संबंधित पुस्तकें व कॉपियां लेकर आने को भी कहा जाता है. ऐसे में बस्तों का बोझ घटाना मुश्किल है." शिक्षाविदों का भी कहना है कि सरकारी दिशानिर्देशों का पालन करना कानूनी बाध्यता नहीं है. इसे कानूनी जामा पहनाना जरूरी है.

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