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स्त्री संघर्ष का अंतहीन सिलसिला

२ जून २०१४

बदायूं कांड, भारतीय समाज में फैलती बदनीयती का एक और डरावना प्रसंग है. ये आखिर किस समाज का हिस्सा हम हैं. एक ओर सत्ता राजनीति और अपने में मगन समाज और दूसरी ओर समाज में बिखरे वहशी. आखिर इस स्थिति को कैसे बदला जाए?

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तस्वीर: Roberto Schmidt/AFP/Getty Images

सिस्टम ज्यादातर लाचार नजर आता है या उसके कारिंदे इस हिंसा पर रिएक्ट नहीं करते. वे मदद को आगे नहीं आते, बाज मौकों पर रक्षक ही भक्षक बने दिखते हैं. निर्भया कांड के बाद एक बिल तो सख्त होकर आ गया लेकिन इस बिल की परवाह भला किसे है. कौन डरता है इससे. डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार गोपाल मेनन ने “किलिंग्स फील्ड्स ऑफ मुजफ्फरनगर” नाम से एक फिल्म बनाई है. दंगों में औरतों पर हुए जुल्म के हिला देने वाले बयान इसमें है. आखिर क्यों है ये वहशीपन. नए सामंतों, नए धनिकों और नए दलालों का बोलबाला है. वे जातीय हिंसा करते हैं. बलात्कार भी एक जातीय हिंसा है.

निरंतर उपभोग की लालसा मास मीडिया के दानवी फैलाव में तीव्र हुई है. टीवी हो या मेनस्ट्रीम सिनेमा, वहां प्रस्तुत सामग्री दर्शक को और सेंसेटाइज करती है. उसे और उत्तेजित बनाती है. पत्रिकाओं और अखबारों में सेक्स और ताकत के लिए उकसाते विज्ञापन आपको दिखेंगे. यौन उत्तेजना पैदा करने वाले दृश्यों और पाठों की भरमार है. सुखी बनाने का दावा करता उपभोक्तावाद पता ही नहीं चलता कि कब क्रूरता में दाखिल हो जाता है और दैनिक व्यवहार और विचार पर कब्जा करने लगता है.

Protest nach Gruppenvergewaltigung und Ermordung zweier Mädchen in Indien 30.05.2014
बलात्कार कांड को लेकर विरोध प्रदर्शनतस्वीर: picture-alliance/AP

ताकत का ये खेल स्त्री के लिए अस्तित्व की लड़ाई का अंतहीन सिलसिला है. वो सबसे पहले अपने गर्भ में अपने लिए जगह ढूंढती है. बेटे की चाहत दुनिया में सभी जगह है. जर्मन कथाकार ग्युंटर ग्रास के उपन्यास “द फ्लाउन्डर” में स्त्री की बेटे के लिए एक भीषण चाहत का जिक्र है. एक ओर ये कामना है तो दूसरी ओर अन्याय और उपभोग की लैंगिक रणनीति. मनुष्य समाज में ताकत के जितने रूप और संस्थान हैं वे सब दबे कुचले, उत्पीड़ित समुदायों का शोषण करते हैं. औरत भी उनमें एक है. जब मास मीडिया नहीं था तो उस समाज में बर्बरताएं क्यों थीं. वे उस दौर की कुरूपताओं से निकली थीं, जहां स्त्रियां भोग की वस्तुएं थीं और एक सत्ता उपकरण की तरह इस्तेमाल की जाती थीं. एक स्त्री की कोमलता, भावना और सौंदर्यबोध धीरे धीरे उसकी कमजोरी और विवशता मान लिये गए. मनुष्यता का इतिहास इस तरह स्त्रियों की लगातार रूप बदलती गुलामी का इतिहास भी है.

वहशियों की ये जमात ऐसे देश में फलफूल रही है जहां कभी स्त्री को ब्रह्मा का दर्जा दिया गया था. ऋग्वेद में एक सूक्ति है ‘स्त्री हि ब्रह्मा वभूविथ.' स्त्रियों के प्रति सम्मान की ये भावना धीरे धीरे प्रदर्शन और स्त्री के ईश्वरीकरण तक सिमट गई. ये उन्हें निश्चित छवियों में “फ्रेम” करने की रणनीति थी. यही बलशाली समाज की पॉलिटिक्स रही है.

समाज में बदलाव क्या संभव है? बुद्ध या गांधी के बताए आचरण की शुद्धता के सिद्धांत पर कोई अमल करेगा? इसके लिए तो साहस और धीरज चाहिए. एक कड़ा कानून बनता है, ठीक है, सजाएं भी हो जाती हैं. लेकिन क्या इससे अपराधी सबक लेते हैं- ये भी तो देखिए. इसके लिए एक सिस्टम घर परिवार समाज से लेकर सरकार के स्तर तक बने और गांव या शहर- लड़कियां हर जगह सुरक्षित महसूस करें. स्त्रियों का सामाजिक और राजनैतिक सशक्तीकरण एक लंबित कार्रवाई है. उस पर सत्ता राजनीति की आंखें बंद हैं. चंद उदाहरणों से आप स्त्री जाति की मुक्ति की गाथा नहीं लिख सकते. इतने एनजीओ सक्रिय हैं. क्या एक पहल ऐसी नहीं की जा सकती कि वे तमाम छोटे बड़े इलाकों, तमाम शैक्षिक और अन्य संस्थानों में जागरूकता और निर्भीकता के अभियान चलाएं. मास मीडिया में औरत को कमोडिटी के रूप में पेश करने वाली तमाम सामग्रियों पर भी नकेल कसनी होगी.

इसके अपने खतरे भी हैं कि ऐसा करते हुए सांस्कृतिक अतिवादिता का रास्ता न अख्तियार किया जाए. स्त्री की आज़ादी पर अकुंश लगाने की कोशिश भी ऐसा करते हुए की जा सकती है, यही ध्यान रखने के लिए पहले परिवारों को समाजों को और सरकारों को और मुस्तैद और विवेकपूर्ण बनना होगा. मर्दवादी और महिला द्वेषी विचारों को जितना जल्दी उखाड़ फेंकेंगे उतना ही समाज के लिए अच्छा रहेगा.

बिना स्त्री के सामाजिक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती. वह गहन अंधकार की स्थिति है. आखिरी बात यही है कि जुल्म के शिकार लोगों और उनकी चिंता करने वालों को दब कर चुप नहीं रह जाना चाहिए. उन्हें लड़ना चाहिए. इतालवी फिल्मकार फेदेरिको फेलिनी की एक प्रसिद्ध फिल्म “ला स्त्रादा” में एक स्त्री की भावना से खेलता हुआ एक पुरुष उसे कगार तक ले जाता है और वहां से धक्का देकर निकल भागता है. लेकिन कुछ ही देर बाद हम देखते हैं स्त्री अपनी कोमल हैरानी और निर्विकार मुस्कान के साथ पानी से निकलती हुई आ जाती है. वहशियत अगर एक विचार है तो स्त्रीयता भी एक विचार है. उसे मारना नामुमकिन है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ