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समाज

स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण से किसका भला

शिवप्रसाद जोशी
१६ जनवरी २०१८

केंद्र सरकार का एक ताजा सर्वे से पता चलता है कि भारत में निजी अस्पतालों की ओर लोगों का रुझान बढ़ा है. सरकारी अस्पतालों में मरीजों की संख्या में गिरावट आ रही है.

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Indien Uttar Pradesh Krankenhaus Kind mit Sauerstoffmaske
तस्वीर: Imago/Hindustan Times/D. Gupta

चौथे राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक, 56 फीसदी शहरी और 49 फीसदी ग्रामीण लोगों ने निजी स्वास्थ्य सेवाओं का विकल्प चुना. बुनियादी सुविधाओं के तीव्र निजीकरण के बीच ये स्थिति चौंकाती तो नहीं है लेकिन चिंता ये है कि अभी भारत की एक बड़ी आबादी इतनी वंचित और संसाधनविहीन है कि वो निजी अस्पतालों के आलीशान और अत्यंत महंगे इलाज का खर्च वहन करने में समर्थ नहीं. क्या सरकारें जानबूझकर, अपने दायित्व से मुंह मोड़ रही हैं और निजी अस्पतालों की बाढ़ आ गई है? जबकि सुरक्षित उपचार को लेकर इधर कुछ नामचीन अस्पताल सवालों और जांच के घेरे में भी आए हैं.

मरीजों के प्रति उदासीनता का आलम हम गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौतों मे भी देख सकते हैं और फोर्टिस जैसे अस्पतालों में भी जहां 16 लाख का बिल थमा दिया जाता है या मैक्स में नवजात को मरा हुआ बता कर पल्ला झाड़ दिया जाता है. उपचार के लिए महंगे खर्च को लोग विवश हैं क्योंकि सरकारी अस्पतालों में या तो इंतजाम अच्छे नहीं है, या विशेषज्ञ डॉक्टर, या पर्याप्त दवाएं, साफ बिस्तर आदि नहीं हैं. लोगों को लगता है कि सरकारी में भी जब बाहर से दवाएं मंगाकर इलाज कराना है तो क्यों न प्राइवेट में शरण ली जाए. गरीब मरीजों के लिए बाजदफा इधर कुआं उधर खाई जैसे हालात बन जाते हैं.

ताजा सर्वे 2015-16 के नतीजों पर आधारित है. सही है कि सरकारी और म्युनिसिपल अस्पतालों में जाने वाले परिवारों की संख्या में 2005-06 में हुए पिछले सर्वे के मुकाबले वृद्धि दर्ज की गई है. लेकिन निजी के सापेक्ष भी अंतर तेजी से बढ़ा है. सबको शिक्षा सबको स्वास्थ्य एक तरह से सरकारों का संवैधानिक दायित्व है. बेहतर स्वास्थ्य से बेहतर समाज के निर्माण की बात की जाती है लेकिन बेहतरी के लिए दिनों दिन शर्ते ज्यादा और कठिन होती जा रही हैं. बीमारी से निजात पाने के लिए या तो आपके पास निजी सेवाओं तक पहुंच का पर्याप्त साहस, समय, धन हो या पर्याप्त कर्ज ले पाने की हिम्मत. इस तरह स्वास्थ्य की बेहतरी की लड़ाई एक साधारण व्यक्ति के लिए डरावने वित्तीय दुष्चक्र का निर्माण भी करती जाती है. 

Situation in Krankenhäusern Kalkutta Indien
ऐसी है ज्यादातर सरकारी अस्पतालों की हालततस्वीर: DW/P. Samanta

भारत की 48 फीसदी आबादी देश के जिन नौ सबसे गरीब राज्यों में बसर करती है वहां नवजात बच्चों की मौत के 70 फीसदी मामले होते हैं और 62 फीसदी मातृ मृत्यु दर है. बच्चे कुपोषित हैं और बीमार हैं. इन नौ में से अगर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों को ही देखें तो पूरे देश में बच्चों की कुल मौतों में से 58 फीसदी इन राज्यों में होती हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार इन राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के लिए कुल निर्धारित मद का बहुत कम प्रतिशत ही खर्च किया जाता रहा है. दूसरी ओर इन राज्यों में सामुदायिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या भी कम है और डॉक्टर और अन्य स्टाफ भी पर्याप्त नहीं है.

स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना तो नहीं होगा. सवाल यही है कि ये आए कैसे. इसका सीधा जवाब देना कठिन है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगर रात दिन ‘जनता-जनार्दन' का ढोल बजाया जाता है तो नागरिकों को भी अधिकारों के प्रति जागरूक रहना पड़ेगा. समवेत रूप से लोगों को सरकारों को झिंझोड़ने का साहस करना चाहिए. अक्सर छिटपुट मामले देखे जाते हैं कि किसी सुदूर इलाके के लोग बुनियादी सुविधाओं की मांग पूरी न होने की सूरत में चुनाव का बहिष्कार करते हैं. प्रतिरोध का ये तरीका कितना वाजिब है, इस पर अलग से बहस हो सकती है लेकिन लाचार लोगों को अगर दबाव बनाने का कोई तरीका उपयुक्त लगता है तो उसमें खोट देखने के बजाय कोशिश ये होनी चाहिए कि उनकी समस्या को समझा जाए. दूसरी ओर, वोट भी नागरिकों के पास एक बड़ा हथियार है. वे अपने इस हथियार का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करें तो राजनीतिक दलों और सरकारों की नींद टूटेगी. मोबिलाईजेशन में जन संगठनों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है. एनजीओ यानी स्वयंसेवी संस्थाओं को भी फिल द गैप व्यवस्था से बाहर निकलकर अधिकारों के प्रति नागरिकों को सूचना संपन्न बनाना चाहिए. उन्हें सरकारी संस्थाओं या दानदाता एजेंसियों के प्रतिनिधि के रूप में ही काम करते रहने की प्रवृत्ति तोड़नी होगी वरना यथास्थितिवाद ही पनपेगा, मूल काम पीछे छूटता जाएगा.

आर्थिक समृद्धि और विकास की तेज गति के बीच स्वास्थ्य कल्याण के कई वैश्विक सूचकांकों में भारत आज भी पिछड़ा हुआ है. चिंताजनक हालात का अर्थ ये भी है कि देश के रूप में हम विभाजित हैं और सामूहिक चेतना का ह्रास हो रहा है. अगर क्यूबा जैसा छोटा सा देश पब्लिक हेल्थकेयर की एक अप्रतिम मिसाल बना सकता है तो यूं विश्व शक्ति बनने को बेताब भारत क्यों नहीं.